Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
(६) मन-प्राण
(७) बचन प्राण
( ८) काय प्राण
(६) श्वासोच्छवास - प्राण
(१०) आयुष्य प्राण
प्राण शक्तियां सब जीवों में समान नहीं होतीं । फिर भी कम से कम चार तो प्रत्येक प्राणी में होती ही है।
शरीर, श्वास- उछ्वास, श्रायुष्य और स्पर्शन इन्द्रिय, इन जीवन-शक्तियों मैं जीवन का मौलिक आधार है। प्राण-शक्ति और पर्याप्ति का कार्य-कारण सम्बन्ध है । जीवन शक्ति को पौद्गलिक शक्ति की अपेक्षा रहती है। जन्म के पहले क्षण में प्राणी कई पौदगलिक शक्तियों की रचना करता है। उनके द्वारा स्त्रयोग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्जन होता है। उनकी रचना प्राण-शक्ति के अनुपात पर होती है। जिस प्राणी में जितनी प्राण-शक्ति की योग्यता होती है, वह उतनी ही पर्याप्तियों का निर्माण कर सकता है। पर्यातिरचना में प्राणी को अन्तर- मुहूर्त का समय लगता है । यद्यपि उनकी रचना प्रथम क्षण में ही प्रारम्भ हो जाती है पर श्राहार-पर्याप्ति की समासि अन्तर्मुहूर्त से पहले नहीं होती । स्वयोग्य पर्याप्तियों की परिसमाप्ति न होने तक जीव अपर्याप्त कहलाते हैं और उसके बाद पर्याप्त । उनकी समाप्ति से पूर्व ही जिनकी मृत्यु हो जाती है, वे अपर्याप्त कहलाते हैं। यहाँ इतना सा जानना आवश्यक है कि आहार, शरीर और इन्द्रिय-इन तीन पर्याप्तियों की पूर्ण रचना किए बिना कोई प्राणी नहीं मरता ।
के सिवाय शेष सबो
जीवों के १४ भेद और उनका आधार
जीवों के निम्नोक्त १४ भेद हैं :
सूक्ष्म एकेन्द्रिय के दो भेद बादर एकेन्द्रिय के दो भेद
दीन्द्रिय के दो भेद
श्रीन्द्रिय के दो भेद चतुरिन्द्रिय के दो भेद
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अपर्याप्त और पर्याप्त
पर्यात और पर्याप्त
अपर्याप्त और पर्याप्त
अपर्याप्त और पर्याप्त अपर्याप्त और पर्याप्तं