Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
View full book text
________________
5]
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
R
. व्यक्ति 'मृत्यु' और 'जन्म' की वेदना से सम्मूढ़ हो जाता है; इसलिए साधारणतया उसे जाति की स्मृति नहीं होती। एक ही जीवन में दुःख ध्यप्रदशा ( सम्मोह-दशा ) में स्मृति-भंश हो जाता है, तब वैसी स्थिति में पूर्व-जन्म की स्मृति लुप्त हो जाए, उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं।
पूर्व जन्म के स्मृति-साधन मस्तिष्क आदि नहीं होते, फिर भी आत्मा के हद-संस्कार और शान-बल से उसकी स्मृति हो पाती है। इसीलिए, शान दो प्रकार का बतलाया है-इम जन्म का ज्ञान और अगले जन्म का शान । असीन्द्रियज्ञान-योगीज्ञान
अतीन्द्रिय शान इन्द्रिय और मन दोनों से अधिक महत्त्वपूर्ण है । वह प्रत्यक्ष है, इसलिए इसे पौदगलिक साधनों-शारीरिक अवयवों के सहयोग की अपेक्षा नहीं होती। हह 'आत्ममात्रापेक्ष' होता है। हम जो त्वचा से छूते हैं, कानों से सुनते हैं, आँखों से देखते हैं, जीम से चखते हैं, वह वास्तविक प्रत्यक्ष नहीं। हमारा ज्ञान शरीर के विभिन्न अवयवों से सम्बन्धित होता है, इसलिए, उसकी नैश्चयिक सत्य [ निरपेक्ष मत्य ] तक पहुँच नहीं होती। उसका विषय केवल व्यावहारिक सत्य [ मापेक्ष सत्य ] होता है। उदाहरण के लिए स्पर्शन-इन्द्रिय को लीजिए। हमारे शरीर का मामान्य तापमान ६७ या ६८ डिग्री होता है। उससे कम तापमान वाली वस्तु हमारे लिए ठंडी होगी। जिसका तापमान हमारी उष्मा से अधिक होगा, वह हमारे लिए गर्म होगी। हमारा यह ज्ञान स्वस्थिति स्पशी होगा, वस्तु-स्थिति-स्पी नहीं। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु के वर्ण, गन्ध, रस, स्मर्श, शब्द और संस्थान [वृत्त, परिमंडल, त्र्यंस, चतुरंश ] का ज्ञान सहायक सामग्री-सापेक्ष होता है। अतीन्द्रिय शान परिस्थिति की अपेक्षा से मुक्त होता है। उसकी शप्ति में देश, काल और परिस्थिति का व्यवधान या विपर्यास नहीं आता। इसलिए उससे वस्तु के मौलिक रूप की सही-सही जानकारी मिलती है।