Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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__ . जैन दर्शन के मौलिक तत्व. . स्थूल परिगतिमान होने के कारण दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार एकनिय ... के सूक्ष्म-अपर्यात और पर्यात, वादर-अपर्याप्त और पर्यास-ये चार मैव होते है। इसके बाद चतुरिन्द्रिय तक के सब जीवों के दो-दो मेद होते हैं। वेन्द्रिय जीवों के चार विभाग है। जैसे एकेन्द्रिय जीवों की सूक्ष्म और बादर-चे दो प्रमुख श्रेणियां है, वैसे पंचेन्द्रियजीव समनस्क और अमनस्क-इन दो भागों में बंटे हुए हैं। चार-इन्द्रिय तक के सब जीव अमनस्क होते हैं। इसलिए मन की लब्धि या अनुपलब्धि के आधार पर उनका कोई. विभाजन नहीं होता! सन्मूरनज पंचेन्द्रिय जीवों के मन नहीं होता। गर्मज और उपपातज पंचेन्द्रिय जीव समनस्क होते हैं। अतएव अतंशी पंचेन्द्रिमअपर्यात और पर्याप्त, संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और पर्याप्त-ये चार मेद होते हैं। संसार के प्राणी मात्र इन चौदह वर्गों में समा जाते हैं। इस वीकरण से हमें जीवों के क्रमिक विकास का भी पता चलता है। एक इन्द्रिय वाले जीवों से दी इन्द्रिय वाले जीव, द्वीन्द्रिय से तीन इन्द्रिय वाले जीव-यों क्रमशः पूर्व श्रेणी के जीवों से उत्तर श्रेणी के जीव अधिक विकसित हैं। इन्द्रिय ज्ञान और पांच जातियां ___ इन्द्रिय-ज्ञान परोक्ष है । इसीलिए परोक्ष-ज्ञानी को पौद्गलिक इन्द्रियों की अपेक्षा रहती है। किसी मनुष्य की आंख फूट जाती है, फिर भी वह चतुरिन्द्रिय नहीं होता। उसकी दर्शन-शक्ति कहीं नहीं जाती किन्तु अांख के अभाव में उसका उपयोग नहीं होता। अांख में विकार होता है, दीखना बन्द हो जाता है। उसको उचित चिकित्सा हुई, दर्शन-शक्ति खुल जाती है। यह पौद गलिक इन्द्रिय (चतु) के सहयोग का परिणाम है। कई प्राणियों में सहायक इन्द्रियों के बिना भी उसके ज्ञान का आभास मिलता है, किन्तु वह उनके होने पर जितना स्पष्ट होता है, उतना स्पष्ट उनके अभाव में नहीं होता। . बनस्पति में रसन आदि पाँचौं इन्द्रियों के चिह गिलते हैं। उनमें भावेन्द्रिय का पूर्ण विकास और सहायक इन्द्रिय का सदभाव नहीं होता, इसलिए वे एकेन्द्रिय ही कहलाते हैं। उक्त विवेचन से दो निष्कर्ष निकलते हैं। पहला यह कि इन्द्रिय 'शान'चेतन-इन्द्रिय और जड़-इन्द्रिय दोनों के सहयोग से होता है। फिर भी जहाँ तक शान का सम्बन्ध है-उसमें वेतन-हन्द्रिय