Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तस्व
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सृप - नेवला आदि) ये दो वर्ग हैं। मनुष्य गर्भज ही होते हैं । तिर्यञ्च गर्भज भी होते हैं और सम्मूर्च्छनज भी ।
मानुषी गर्भ के चार विकल्प हैं—स्त्री, पुरुष, नपुंसक और विश्व* । ओज की मात्रा अधिक वीर्य की मात्रा अल्प तब स्त्री होती है। श्रोज अल्प और वीर्य अधिक तब पुरुष होता है। दोनों के तुल्य होने पर नपुंसक होता है । वायु के दोष से श्रीज गर्भाशय में स्थिर हो जाता है, उसका नाम 'बिम्ब' है " | वह गर्भ नहीं, किन्तु गर्भ का आकार होता है । वह भाव की निर्जीव परिणति होती है । ये निर्जीव विम्ब जैसे मनुष्य जाति में होते हैं, वैसे ही पशु-पक्षी जाति में भी होते हैं। निर्जीव अण्डे, जो आजकल प्रचुर मात्रा में पैदा किये जाते हैं, की यही प्रक्रिया हो सकती है ।
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गर्भाधान की कृत्रिम पद्धति
धान की स्वाभाविक पद्धति स्त्री-पुरुष का संयोग है। कृत्रिम रीति से भी गर्भाधान हो सकता है। 'स्थानांग' में उसके पांच कारण बतलाए हैं । उन सब का सार कृत्रिम रीति से वीर्य - प्रक्षेप है। गर्भाधान के लिए मुख्य शर्त वीर्य और तंत्र के संयोग की है। उसकी विधि स्वाभाविक और कृत्रिम दोनों प्रकार की हो सकती है ।
गर्भ की स्थिति
तिर्यञ्च की गर्भ-स्थिति जघन्य
उत्कृष्ट आठ वर्ष की उत्कृष्ट बारह वर्ष की
अन्तर्मुहूर्त्त और है । मनुष्य की गर्भ स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और है । काय भवस्थ की गर्भ-स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट चौबीस वर्ष की है। गर्भ में बारह वर्ष बिता मर जाता है और वही फिर जन्म ले और बारह वर्ष वहाँ रहता है— इस प्रकार काय भवस्थ अधिक से अधिक चौबीस वर्ष तक गर्भ में रह जाता है '
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योनिभूत वीर्य की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त की होती है ।
गर्म संख्या
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एक स्त्री के गर्भ में एक-दो यावत् नौ लाख तक जीव उत्पन्न हो सकते
हैं । किन्तु वे सब निम्पन्न नहीं होते । अधिकांश निषान्न हुए बिना ही मर जाते हैं" ।
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