Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व का मोह और मृत्यु का भय । पूर्व-बद्ध संस्कारों का परिणाम है। यदि पूर्वजन्म में इनका अनुभव न हुआ होता तो नवोत्पन्न प्राणियों में ऐसी वृत्तियां नहीं मिलती । इस प्रकार भारतीय प्रात्मवादियों ने विविध युक्तियों से पूर्वजन्म का समर्थ किया है। पाश्चात्य दार्शनिक भी इस विषय में मौन नहीं हैं। । प्राचीन दार्शनिक प्लेटो [ Plato ] ने कहा है कि-"आत्मा सदा अपने लिए नए-नए वस्त्र बुनती है तथा आत्मा में एक जैसी नैसर्गिक शक्ति है, जो धुप रहेगी और अनेक बार जन्म लेगी।" - नवीन दार्शनिक 'शोपनहोर' के शब्दों में पुनर्जन्म निसंदिग्ध तत्त्व है। जैसे-"मैंने यह भी निवेदन किया कि जो कोई पुनर्जन्म के बारे में पहलेपहल सुनता है, उसे भी वह स्पष्टरूपेण प्रतीत हो जाता है ।
पुनर्जन्म की अवहेलना करने वाले व्यक्तियों की प्रायः दो प्रधान शंकाए सामने आती हैं। जैसे-यदि हमारा पूर्वभव होता तो हमें उसकी कुछ-न-कुछ तो स्मृतियां होती ? यदि दूसरा जन्म होता तो आत्मा की गति एवं प्रागति हम क्यों नहीं देख पाते?
पहली शंका का हम अपने बाल्य-जीवन से ही समाधान कर सकते हैं। बचपन की घटनावलियाँ हमें स्मरण नहीं आती तो क्या इसका यह अर्थ होगा कि हमारी शैशव-अवस्था हुई नहीं थी ? एक दो वर्ष के नव-शैशव की घटनाएं स्मरण नहीं होती, तो भी अपने बचपन में किसी को सन्देह नहीं होता। वर्तमान जीवन की यह बात है, तब फिर पूर्वजन्म को हम इस युक्ति से कैसे हवा में उड़ा सकते हैं। पूर्वजन्म की भी स्मृति हो सकती है, यदि उतनी शक्ति जागृत हो जाए। जिसे 'जाति स्मृति' [ पूर्वजन्म-स्मरण ] हो जाती है, यह अनेक जन्मों के घटनात्रों का साक्षात्कार कर सकता है।
दूसरी शङ्का एक प्रकार से नहीं के समान है। प्रात्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता-उसके दो कारण है -एक तो वह अमूर्त है-रूप रहित है। इसलिए दृष्टिगोचर नहीं होता। दूसरे वह सूक्ष्म है, इसलिए शरीर में प्रवेश करता हुआ या निकलता हुआ उपलब्ध नहीं होता। "नाऽभावोऽनीक्षणादपि"-नहीं दीखने मात्र से किसी वस्तु का प्रभाव नहीं होता। सूर्य के प्रकाश में नक्षत्रकलनही देखा जाता। इससे उसका प्रभाव थोड़ा ही माना जा सकता है।