Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
View full book text
________________
जैन दर्शन के मौलिक तत्व होगा। इसलिए हमें आत्मा की जड़ वस्तु से मिन्न सत्ता खीकार करनी होती है। यद्यपि कई विचारक आत्मा को जड़ पदार्थ का विकसित रूप मानते हैं, किन्तु यह संगत नहीं। विकास अपने धर्म के अनुकूल ही होता है और हो सकता है। चैतन्यहीन जड़ पदार्थ से चेतनावान् श्रात्मा का उपजना विकास नहीं कहा जा सकता। यह तो सर्वथा असत्-कार्यवाद है। इसलिए जड़त्व और चेतनत्व-इन दो विरोधी महाशक्तियों को एक मूल तत्त्वगत न मानना ही युक्ति-संगत है। स्वतन्त्र सत्ता का हेतु
द्रव्य का स्वतंत्र अस्तित्व उसके विशेष गुण द्वारा सिद्ध होता है। अन्य द्रव्यों में न मिलने वाला गुण जिसमें मिले, वह स्वतंत्र द्रव्य होता है। सामान्यगुण जो कई द्रव्यों में मिले, उनसे पृथक द्रव्य की स्थापना नहीं होती। चैतन्य श्रात्मा का विशिष्ट गुण है। वह उसके सिवाय और कहीं नहीं मिलता। अतएव आत्मा स्वतंत्र द्रव्य है और उसमें पटार्थ के व्यापक लक्षण-अर्थ-क्रियाकारित्व और सत् दोनों घटित होते हैं। पदार्थ वही है, जोप्रतिक्षण अपनी क्रिया करता रहे। अथवा पदार्थ वही है, जो सत् हो यानि पूर्व-पूर्ववती अवस्थाओं को त्यागता हुश्रा, उत्तर-उत्तरवती अवस्थाओं को प्राप्त करता हुआ भी अपने स्वरूप को न त्यागे। आत्मा में जानने की क्रिया निरन्तर होती रहती है। ज्ञान का प्रवाह एक क्षण के लिए भी नहीं रुकता और वह (आत्मा) उत्पाद, व्यय के स्रोत में वहती हुई भी ध्रुव है। वाल्य, यौवन, जरा श्रादि अवस्थाओं एवं मनुष्य, पशु आदि शरीरों का परिवर्तन होने पर भी उसका चैतन्य अक्षुण्ण रहता है । श्रात्मा में रूप श्राकार एवं वजन नहीं, फिर वह द्रव्य ही क्या ? यह निराधार शंका है। क्योंकि वे सब पुद्गल द्रव्य के अवान्तर-लक्षण हैं। सब पदार्थों में उनका होना आवश्यक नहीं होता। पुनर्जन्म
मृत्यु के पश्चात् क्या होगा ? क्या हमारा अस्तित्व स्थायी है या यह मिट जाएगा ! इस प्रश्न पर अनात्मवादी का उत्तर यह है कि वर्तमान जीवन समाप्त