Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व हुआ है। चेतना भौतिक तत्त्वों के मिश्रण से पैदा होती है या वह भौतिकता का गुणात्मक परिवर्तन है, यह तब तक वैशानिक सिद्धान्त नहीं बन सकता, जब तक भौतिकता के उस चरम बिन्दु की, जहाँ पहुँच कर यह चेतना के रूप में परिवर्तित होता है, निश्चित जानकारी न मिले।
इन्द्रिय और मस्तिष्क आत्मा नहीं
आंख, कान श्रादि नष्ट होने पर भी उनके द्वारा विज्ञान विषय की स्मृति रहती है, इसका कारण यही है कि आत्मा देह और इन्द्रिय से भिन्न है। यदि ऐसा न होता तो इन्द्रिय के नष्ट होने पर उनके द्वारा किया हुश्रा ज्ञान भी चला जाता। इन्द्रिय के विकृत होने पर भी पूर्व ज्ञान विकृत नहीं होता। इससे प्रमाणित होता है कि ज्ञान का अधिष्ठान इन्द्रिय से भिन्न है-वह आत्मा है। इस पर यह कहा जा सकता है कि इन्द्रिय विगड़ जाने पर जो पूर्व शान . की स्मृति होती है, उसका कारण मस्तिष्क है। आत्मा नहीं। मस्तिष्क स्वस्थ होता है, तब तक स्मृति है। उसके बिगड़ जाने पर स्मृति नहीं होती। इसलिए "मस्तिष्क ही शान का अधिष्ठान है।" उससे पृथक आत्मा नामक तत्त्व को खीकार करने की कोई श्रावश्यकता नहीं। यह तर्क भी आत्मवादी के लिए नगण्य है। जैसे इन्द्रियां बाहरी वस्तुओं को जानने के साधन हैं, वैसे मस्तिष्क इन्द्रियज्ञान-विषयक चिन्तन और स्मृति का साधन है। उसके विकृत होने पर यथार्थ स्मृति नहीं होती। फिर भी पागल व्यक्ति में चेतना की क्रिया चालू रहती है, वह उससे भी परे की शक्ति की प्रेरणा है। साधनों की कमी होने पर आत्मा की शान-शक्ति विकल-अधूरी हो जाती है, नष्ट नहीं होती। मस्तिष्क विकृत हो जाने पर अथवा उसे निकाल देने पर भी खाना-पीना, चलना-फिरना, हिलना-डुलना, श्वास-उच्छवास लेना आदि-आदि प्राण-क्रियाएं होती हैं। वे यह बताती हैं कि मस्तिष्क के अतिरिक जीवन की कोई दूसरी शक्ति है। उसी शक्ति के कारण शरीर में अनुभव और प्राण की क्रिया होती है। मस्तिष्क से चेतना का सम्बन्ध है। इसे आत्मवादी भी अस्वीकार नहीं करते। "तन्दुसवेयालिय" के अनुसार इस शरीर में १६० अर्ध्व गामिनी और रसहारिणी शिराए है, जो नामि से निकलकर ठेठ सिर तक पहुँचती हैं। वे स्वस्थ होती