Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तस्व
स्मृति का साधन भले ही माना जाए किन्तु उस स्थिति में वह भविष्य की कल्पना नहीं कर सकता । उसमें केवल घटनाएं अंकित हो सकती हैं, पर उनके पीछे छिपे हुए कारण स्वतंत्र चेतनात्मक व्यक्ति का अस्तित्व माने बिना नहीं जाने जा सकते । "यह क्यों ? यह है तो ऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए, यह नहीं हो सकता, यह वही है, इसका परिणाम यह होगा"ज्ञान की इत्यादि क्रियाए अपना स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध करती हैं I प्लेट [ Plate ] की चित्रावली में नियमन होता है । प्रतिबिम्बित चित्र के अतिरिक्त उसमें और कुछ भी नहीं होता । यह नियमन मानव-मन पर लागू नहीं होता। वह अतीत की धारणाओं के आधार पर बड़े-बड़े निष्कर्ष निकालता है- भविष्य का मार्ग निर्णीत करता है । इसलिए इस दृष्टान्त की भी मानस क्रिया में संगति नहीं होती ।
तर्क - शास्त्र और विज्ञान - शास्त्र अंकित प्रतिबिम्बों के परिणाम नहीं । पूर्व और पूर्व वैज्ञानिक आविष्कार स्वतंत्र मानस की तर्कणा के कार्य हैं, किसी दृष्ट वस्तु के प्रतिबिम्ब नहीं । इसलिए हमें स्वतंत्र चेतना का अस्तित्व और उसका विकास मानना ही होगा । हम प्रत्यक्ष में आने वाली चेतना की विशिष्ट क्रियाओं की किसी भी तरह अवहेलना नहीं कर सकते । इसके अतिरिक्त भौतिकवादी 'वर्गमा' की श्रात्म-साधक युक्ति को -- 'चेतन और चेतन का संबंध कैसे हो मकता है ?'- इस प्रश्न के द्वारा व्यर्थ प्रमाणित करना चाहते है । ' वर्गमा' के सिद्धान्त की अपूर्णता का उल्लेख करते हुए, बताया गया है कि - 'वर्गमा' जैसे दार्शनिक चेतना को भौतिक तत्त्वों से अलग ही एक रहस्यमय वस्तु साबित करना चाहते हैं। ऐसा साबित करने में उनकी सबसे जबरदस्त युक्ति है 'स्मृति' । मस्तिष्क शरीर का अंग होने से एक क्षणिक परिवर्तनशील वस्तु है 1 यह स्मृति को भूत से वर्तमान में लाने का वाहन नहीं बन सकता। इसके लिए किसी अक्षणिक-स्थायी माध्यम की श्रावश्यकता है। इसे वह चेतना या श्रात्मा का नाम देते हैं। स्मृति को अतीत से वर्तमान और परे भी ले जाने की जरूरत है, लेकिन अमर चेतना का मरणधर्मान से सम्बन्ध कैसे होता है, यह आसान समस्या नहीं है । वेतन और अचेतन इतने विरूद्ध द्रव्यों का एक दूसरे के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध