Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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४२) जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व "परमाणुओं के परस्पर सम्मिश्रण की यान्त्रिक क्रिया से शान की उत्पत्ति कैसे हो गई."-सन्तोषप्रद उत्सर नहीं दे सकते ५५ पाचन और श्वासोश्वास की. क्रिया से चेतना की तुलना भी त्रुटिपूर्ण है। ये दोनों क्रियाएं स्वयं अचेतन है। अचेतन मस्तिष्क की क्रिया चेतना नहीं हो सकती। इसलिए यह मानना होगा कि चेतना एक स्वतन्त्र सत्ता है, मस्तिष्क की उपज नहीं। शारीरिक व्यापारों को ही मानसिक व्यापारों के कारण मानने वालों के दूसरी आपत्ति यह पाती है कि-"मैं अपनी इच्छा के अनुसार चलता हूँ मेरे भाव शारीरिक परिवर्तनों को पैदा करने वाले है" इत्यादि प्रयोग नहीं किये जा सकते।
दूसरे वाद-'मनो दैहिक महचरवाद' के अनुसार मानसिक तथा शारीरिक व्यापार परस्पर-सहकारी है, इसके सिवाय दोनों में किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं। इम बाद का उत्तर अन्योन्याश्रयवाद है। उसके अनुसार शारीरिक क्रियाओं का मानसिक व्यापारौं पर एवं मानसिक व्यापारों का शारीरिक क्रियाओं पर असर होता है। जैसे :
(१) मस्तिष्क की बीमारी से मानसिक शक्ति दुर्बल हो जाती है।
(२) मस्तिष्क के परिमाण के अनुसार मानसिक शकि का विकास होता है।
साधारणतया पुरुषों का दिमाग ४६ से ५० या ५२ श्रोस [ounce ] तक का और स्त्रियों का ४४-४८ ओंस तक का होता है। देश-विशेष के अनुसार इसमें कुछ न्यूनाधिकता भी पायी जाती है। अपवादरूप असाधारण मानसिक शक्ति वालों का दिमाग औसत परिमाण से भी नीचे दर्जे का पापा गया है। पर साधारण नियमानुसार दिमाग के परिमाण और मानसिक विकास का सम्बन्ध रहता है।
(३) ब्राझीधृत आदि विविध औषधियों से मानसिक विकास को सहारा मिलता है।
() दिमाग पर आघात होने से स्मरण शकि क्षीण हो जाती है।
(५) दिमाग का एक विशेष भाग मानसिक शकि के साथ सम्बन्धित है, उसकी पति से मानस शक्ति में हानि होती है।