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हर एक फिरके गुरु अपने पासदीक्षित व्यक्तियोंकी संख्याका बड़ा ध्यान रखता है । भक्तोंसे कहता रहता है कि मेरे परिवारमें इतने चेले. इतनी चेलियाँ हैं। जिस गुरु या श्राचार्यके पास दीक्षा लेनेवालोंकी संख्या जितनी बड़ी, उसकी उतनी ही अधिक प्रतिष्ठा समाजमें प्रचलित है। यह भी अनुयायियोंमें संस्कार सा पड़ गया है कि वे अपने गच्छ या फिर्केमें दीक्षित व्यक्तियोंकी बड़ी संख्या में गौरव लेते हैं । पर कोई गुरु, कोई गुरुणी या कोई आचार्य या कोई संघपति गृहस्थ कभी इस बातको जाहिरा प्रसिद्ध नहीं करता, खुले दिलसे बिना हिचकिचाये नहीं बोलता कि उसके शिष्य परिवारोंमेंसे या उसके साधु-मण्डलमें से कितनोंने दीक्षा छोड़ दी, दीक्षा छोड़कर वे कहाँ गए, क्या करते हैं और दीक्षा छोड़नेका सच्चा कारण क्या है ? इन बातोंके प्रकट न होनेसे तथा उनकी सच्ची जानकारी न होनेसे श्रावक समाज अँधेरे में रहता है। दीक्षा छोड़नेके जो कारण हों, वे चालू ही नहीं बल्कि उत्तरोत्तर बढ़ते ही रहते हैं । दीक्षा छोड़नेवालोंकी स्थिति भी खराब होती जाती है। उतने अंशमें समाज भी निर्बल पड़ता जाता है। समझदारोंकी श्रद्धा बिलकुल उठती जाती नजर आती है और साथ ही साथ अविचारी दीक्षा देनेका सिलसिला भी जारी रहता है । यह स्थिति बिना सुधरे कभी धर्म-तेज सुरक्षित रह नहीं सकता। इसलिए हर एक समझदार संघके अगुवे तथा जवाबदेह धार्मिक स्त्री-पुरुषका यह फर्ज है कि वह दीक्षा त्यागके सच्चे कारणोंकी पूरी जाँच करे और श्राचार्य या गुरुको ही दीचा-त्यागसे उत्पन्न दुष्परिणामोंका जवाबदेह समझे। ऐसा किए बिना कोई गुरु या प्राचार्य न तो अपनी जवाबदारी समझेगा न स्थितिका सुधार होगा। उदाहरणार्थ, सुनने में आया कि तेरापन्थमें १८०० व्यक्तियोंकी दीक्षा हुई जिनमेंसे २५० के करीब निकल गए । अब सवाल यह है कि २५० के दीक्षा-त्यागकी जवाबदेही किसकी ? अगर १८०० व्यक्तियोंको दीक्षा देने में तेरापन्थके प्राचार्योंका गौरव है, तो २५० के दीक्षा-त्यागका कलंक किसके मत्थे समझना चाहिए ! मेरी रायमें दीक्षित व्यक्तियोंके ब्यौरेकी अपेक्षा दीक्षात्यागी व्यक्तियों के पूरे ब्यौरेका मूल्य संघ और समाजके श्रेयकी दृष्टिसे अधिक है क्योंकि तभी संघ और समाजके जीवनमें सुधार सम्भव है। जो बात तेरापन्थके विषयमें है, वही अन्य फिरकांके बारेमें भी सही है । दिसम्बर १६४६ ]
[ तरुण,
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