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स्मृति प्रामाण्य
स्मृतिको प्रमा-प्रमाण माननेके बारेमें मुख्य दो परम्पराएँ हैं-जैन और जैनेतर । जैन परम्परा उसे प्रमाण मानकर परोक्षके भेद रूपसे इसका वर्णन करती है। जैनेतर परम्परावाले वैदिक, बौद्ध, सभी दर्शन उसे प्रमाण नहीं मानते अतएव वे किसी प्रमाणरूपसे उसकी चर्चा नहीं करते। स्मृतिको प्रमाण न माननेवाले भी उसे अप्रमाण-मिथ्याज्ञान-नहीं कहते पर वे प्रमाण शब्दसे उसका केवल व्यवहार नहीं करते ।
स्मृत्यात्मक ज्ञानमें प्रमाण शब्दका प्रयोग करने न करनेका जो मतभेद देखा जाता है इसका बीज धर्मशास्त्रके इतिहासमै है। वैदिक परम्परामें धर्मशास्त्र रूपसे वेद अर्थात् श्रुतिका ही मुख्य प्रामाण्य माना जाता है । मन्वादिस्मृतिरूप धर्मशास्त्र प्रमाण है सही पर उनका प्रामाण्य श्रुतिमूलक है। जो स्मृति श्रुतिमूलक है या श्रुतिसे अविरुद्ध है वही प्रमाण है अर्थात् स्मृतिका प्रामाण्य श्रुतिप्रामाण्यतन्त्र है स्वतन्त्र नहीं' । धर्मशास्त्रके प्रामाण्य की इस व्यवस्थाका विचार बहुत पुराने समय से मीमांसादर्शन ने किया है। जान पड़ता है जब स्मृतिरूप धर्मशास्त्रको छोड़कर भी स्मृतिरूप ज्ञानमात्र के विषय में प्रामाण्यविषयक प्रश्न मीमांसकोंके सामने आया तब भी उन्होंने अपना धर्मशास्त्रविषयक उस सिद्धान्त का उपयोग करके एक साधारण ही नियम बाँध दिया कि स्मृतिज्ञान स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है, उसका प्रामाण्य उसके कााणभूत अनुभवके प्रामाण्य पर निर्भर है अतएव वह मुख्य प्रमाणरूपसे गिनी जाने योग्य नहीं। सम्भवतः वैदिक धर्मजीवी मीमांसा दर्शन के इस धर्मशास्त्रीय या तत्त्वज्ञानीय निर्णयका प्रभाव सभी न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग आदि इतर वैदिक दर्शनों पर पड़ा है।
१. पारत-यात् स्वतो नैषां प्रमाणत्वावधारणा | अप्रामाण्यविकल्पस्तु द्रढिम्नैव विहन्यते ।। पूर्वविज्ञानविषयं विज्ञानं स्मृतिरुच्यते । पूर्वज्ञानाद्विना तस्याः प्रामाण्यं नावधार्यते ।।'-तन्त्रवा० पृ० ६६ ।
२. 'एतदुक्तं भवति-सर्वे प्रमाणादयोऽनधिगतमर्थ सामान्यतः प्रकारतो वाऽधिगमयन्ति, स्मृतिः पुनर्न पूर्वानुभवमर्यादामतिकामति, तद्विषया तदूनविषया वा, न तु तदधिकविषया, सोऽयं वृत्त्यन्तराद्विशेषः स्मृतेरिति विमृशति ।तत्ववै० १.११ ।
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