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जैन धर्म और दर्शन
उद्योग-धन्धे अपने अस्तित्व के लिए बुद्धि, धन, परिश्रम और साहस की अपेक्षा कर रहे हैं । अतएव गृहस्थों का यह धर्म हो जाता है कि वे संपत्ति का उपयोग तथा विनियोग राष्ट्र के लिए करें । वे गांधीजी के ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त को अमल में लाएँ । बुद्धिसंपन्न और साहसिकों का धर्म है कि वे नम्र बनकर ऐसे ही कामों में लग जाएँ जो राष्ट्र के लिए विधायक हैं । काँग्रेस का विधायक कार्यक्रम काँग्रेस की ओर से रखा गया है इसलिए वह उपेक्षणीय नहीं है । असल में वह कार्यक्रम जैन-संस्कृति का जीवन्त अंग है। दलितों और अस्पृश्यों को भाई की तरह बिना अपनाएं कौन यह कह सकेगा कि मैं जैन हूँ ? खादी और ऐसे दूसरे उद्योग जो अधिक से अधिक हिंसा के नजदीक हैं और एक मात्र आत्मौपम्य एवं परिग्रह धर्म के पोषक हैं उनको उत्तेजना दिये बिना कौन कह सकेगा कि मैं हिंसा का उपासक हूँ ? अतएव उपसंहार में इतना ही कहना चाहता हूँ कि जैन लोग, निरर्थक आडम्बरों और शक्ति के अपव्ययकारी प्रसंगों में अपनी संस्कृति सुरक्षित है, यह भ्रम छोड़कर उसके हृदय की रक्षा का प्रयत्न करें, जिसमें हिन्दू और मुसलमानों का ही क्या, सभी कौमों का मेल भी निहित है । संस्कृति का संकेत --
सक्तिपूर्वक और आसक्ति
संस्कृति-मात्र का संकेत लोभ और मोह को घटाने व निर्मूल करने का है, न कि प्रवृत्ति को निर्मूल करने का । वही प्रवृत्ति त्याज्य है जो श्रासक्ति के बिना कभी संभव ही नहीं, जैसे कामाचार व वैयक्तिक परिग्रह आदि । जो प्रवृत्तियाँ समाज का धारण, पोषण, विकसन करनेवाली हैं वे के सिवाय भी संभव हैं । अतएव संस्कृति आसक्ति के है । जैन संस्कृति यदि संस्कृति - सामान्य का अपवाद बने में मिट जा सकती है । ई० १६४२ ]
त्यागमात्र का संकेत करती तो वह विकृत बनकर अंत
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[ विश्वव्यापी
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