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जैन धर्म और दर्शन
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प्रथम सूझ पड़ा। जो जैन विद्वान् यौगपद्य पक्ष को मान कर उसका समर्थन करते थे उनके सामने क्रम पक्ष माननेवालों का बड़ा श्रागमिक दल रहा जो श्रागम के अनेक वाक्यों को लेकर यह बतलाते थे कि यौगपद्य पक्ष का कभी जैन गम के द्वारा समर्थन किया नहीं जा सकता यद्यपि में यौगपद्य पक्ष शुरू तर्कबल के आधार पर ही प्रतिष्ठित हुआा जान पड़ता है, पर सम्प्रदाय की स्थिति ऐसी रही कि वे जब तक अपने यौगपद्य पक्ष का श्रागमिक वाक्यों के द्वारा समर्थन न करें और आगमिक वाक्यों से ही क्रम पक्ष माननेवालों को जवाब न दें, तब तक उनके यौगपद्य पक्ष का संप्रदाय में आदर होना संभव न था । ऐसी स्थिति देख कर यौगपद्य पक्ष के समर्थक तार्किक विद्वान भी श्रागमिक वाक्यों धार अपने पक्ष के लिए लेने लगे तथा अपनी दलीलों को ग्रागमिक वाक्यों में से फलित करने लगे इस तरह श्वेताम्बर परंपरा में क्रम पक्ष तथा यौगपद्य पक्ष का आगमाश्रित खण्डन - मण्डन चलता ही था कि बीच में किसी को अभेद पक्ष की सूझी। ऐसी सूझ वाला तार्किक यौगपद्य पक्ष वालों को यह कहने लगा कि अगर क्रम पक्ष में त्रुटि है तो तुम यौगपद्य पक्ष वाले भी उस त्रुटि से बच नहीं सकते । ऐसा कहकर उसने यौगपद्य पक्ष में भी सर्वज्ञत्व आदि दोष दिखाए और अपने अभेद पक्ष का समर्थन शुरू किया । इसमें तो संदेह ही नहीं कि एक बार क्रम पक्ष छोड़कर जो यौगपद्य पक्ष मानता है वह अगर सोधे तर्कबल का आश्रय ले तो उसे भेद पक्ष पर अनिवार्य रूप से आना ही पड़ता है । अभेद पक्ष की सूझ वाले ने सीधे तर्कबल से प्रभेद पक्ष को उपस्थित करके क्रम पक्ष तथा यौगपद्य पक्ष का निरास तो किया पर शुरू में सांप्रदायिक लोग उसकी बात श्रागमिक वाक्यों के सुलभाव के सिवाय स्वीकार कैसे करते ? इस कठिनाई को हटाने के लिए भेद पक्ष वालों ने श्रागमिक परिभाषाओं का नया अर्थ भी करना शुरू किया और उन्होंने अपने अभेद पक्ष को तर्कबल से उपपन्न करके भी अंत में श्रमिक परिभाषात्रों के ढाँचे में बिठा दिया । क्रम, यौगपद्य और भेद पक्ष के उपर्युक्त विकास की प्रक्रिया कम से कम १५० वर्ष तकश्वेताम्बर परंपरा में एक-सी चलती रही और प्रत्येक पक्ष के समर्थ धुरंधर विद्वान् होते रहे और वे ग्रन्थ भी रचते रहे । चाहे क्रमवाद के विरुद्ध जैनेतर परंपरा की ओर से आक्षेप हुए हों या चाहे जैन परंपरा के
तर चिन्तन में से ही आक्षेप होने लगे हों, पर इसका परिणाम अंत में क्रमशः यौगपद्य पक्ष तथा भेद पक्ष की स्थापना में ही आया, जिसकी व्यवस्थित चर्चा जिनभद्र की उपलब्ध विशेषणवती और विशेषावश्यकभाष्य नामक दोनों कृतियों में हमें देखने को लिलती हैं ।
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