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जैन धर्म और दर्शन काशी जैसे स्थान में पढ़ाकर दूसरा हेमचन्द्र तैयार कीजिए । उस सेठ ने इसके वास्ते दो हजार चांदी के दीनार खर्च करना मंजूर किया और हुंडी लिख दी । गुरु नयविजयजी शिष्य यशोविजय आदि सहित काशी में आए और उन्हें वहां के प्रसिद्ध किसी भाचार्य के पास न्याय आदि दर्शनों का तीन वर्ष तक दक्षिणा-दान पूर्वक अभ्यास कराया। काशी में ही बाद में, किसी विद्वान् पर विजय पाने के बाद पं० यशोविजयजी को 'न्यायविशारद' की पदवी मिली। उन्हें 'न्याया। चार्य' पद भी मिला था, ऐसी प्रसिद् रही। पर इसका निर्देश 'सुजशवेली भास' में नहीं है।
काशी के बाद उन्होंने आगरा में रहकर चार वर्ष तक न्यायशास्त्र का विशेष अभ्यास व चिंतन किया। इसके बाद वे अहमदाबाद पहुँचे, जहाँ उन्होंने औरंगजेब के महोबत खां नामक गुजरात के सूबे के अध्यक्ष के समक्ष अठारह अवधान किये । इस विद्वत्ता और कुशलता से आकृष्ट होकर सभी ने पं० यशोविजयजी को 'उपाध्याय' पद के योग्य समझा । श्री विजयदेव सूरि के शिष्य श्रीविजयप्रभ सूरि ने उन्हें सं० १७१८ में वाचक-उपाध्याय पद समर्पण किया ।
वि० सं० १७४३ में डमोई गांव, जो बड़ौदा स्टेट में अभी मौजूद है, उसमें उपाध्यायजी का स्वर्गवास हुआ, जहाँ उनकी पादुका वि० सं० १७४५ में प्रतिष्ठित की हुई अभी विद्यमान है ।
उपाध्यायजी के शिष्य-परिवार का उल्लेख 'सुजश वेली' में तो नहीं है, पर उनके तत्त्व विजय आदि शिष्य-प्रशिष्यों का पता अन्य साधनों से चलता है, जिसके वास्ते 'जैन गुर्जर कविओं' भाग २, पृष्ठ २७ देखिए ।
- उपाध्यायजी के बाह्य जीवन की स्थूल घटनाओं का जो संक्षिप्त वर्णन ऊपर किया है, उनमें दो घटनाएँ खास मार्के की हैं जिनके कारण उपाध्यायजी के प्रांतरिक जीवन का स्रोत यहां तक अन्तर्मुख होकर विकसिल हुआ, कि जिसके बल पर वे भारतीय साहित्य में और खासकर जैन परंपरा में अमर हो गए। उनमें से पहली घटना अभ्यास के वास्ते काशी जाने की है, और दूसरी न्याय आदि दर्शनों का मौलिक अभ्यास करने की है । उपाध्यायजी कितने ही बुद्धि या प्रतिभासंपन्न क्यों न होते, उनके वास्ते गुजरात आदि में अध्ययन की सामग्री कितनी ही क्यों न जुटाई जाती, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि वे अगर काशी में न आते, तो उनका शास्त्रीय व दार्शनिक ज्ञान, जैसा उनके ग्रन्थों में पाया जाता है, संभव न होता । काशी में जाकर भी वे उस समय तक विकसित न्यायशास्त्र-खास करके नवीन न्याय-शास्त्र का पूरे बल से अध्ययन न करते तो उन्होंने जैन परंपरा को
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