________________
४८६
जैन धर्म और दर्शन
तो यह कि एकांगी अभ्यासी अपने सांप्रदायिक मन्तव्य का कभी-कभी यथावत निरूपण ही नहीं कर पाता। दूसरा यह कि वह अन्य मत की समीक्षा अनेक बार गलत धारणाओं के आधार पर करता है । तीसरा रूप यह है कि एकांगी अभ्यास के कारण संबद्ध विषयों व ग्रन्थों के ज्ञान से ग्रन्थगत पाठ ही अनेक बार गलत हो जाते हैं । इसी तीसरे प्रकार की ओर प्रो० विधुशेखर शास्त्री ने ध्यान खींचते हुए कहा है कि 'प्राकृत भाषाओं के अज्ञान तथा उनकी उपेक्षा के कारण 'वेणी संहार' में कितने ही पाठों की अव्यवस्था हुई है ' ।' पंडित बेचरदासजी ने 'गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति' में ( पृ० १०० टि० ६२ में) शिवराम म० प्रांजपे संपादित ‘प्रतिमा नाटक' का उदाहरण देकर वही बात कही है । राजशेखर की 'कर्पूर मंजरी' के टीकाकार ने शुद्ध पाठ को ठीक समझ कर ही उसकी टीका की है । डा० ए. एन. उपाध्ये ने भी अपने वक्तव्य में प्राकृत भाषाओं के यथावत् ज्ञान न होने के कारण संपादकों व टीकाकारों के द्वारा हुई अनेकविध भ्रान्तियों का निदर्शन किया है ।
विश्वविद्यालय के नए युग के साथ ही भारतीय विद्वानों में भी संशोधन की तथा व्यापक अध्ययन की महत्त्वाकांक्षा व रुचि जगी । वे भी अपने पुरोगामी पाश्चात्य गुरुत्रों की दृष्टि का अनुसरण करने की ओर झुके व अपने देश की प्राचीन प्रथा को एकांगिता के दोष से मुक्त करने का मनोरथ व प्रयत्न करने लगे । पर अधिकतर ऐसा देखा जाता है कि उनका मनोरथ व प्रयत्न अभी तक सिद्ध नहीं हुआ । कारण स्पष्ट है । कॉलेज व यूनिवर्सिटी की उपाधि लेकर नई
से काम करने के निमित्त आए हुए विश्वविद्यालय के अधिकांश श्रध्यापकों में वही पुराना एकांगी संस्कार काम कर रहा है । अतएव ऐसे अध्यापक मुँह से तो सांप्रदायिक व व्यापक तुलनात्मक अध्ययन की बात करते हैं पर उनका हृदय उतना उदार नहीं है । इससे हम विश्वविद्यालय के वर्तुल में एक विसंवादी चित्र पाते हैं । फलतः विद्यार्थियों का नया जगत् भी समीचीन दृष्टिलाभ न होने से दुविधा में ही अपने अभ्यास को एकांगी व विकृत बना रहा है । हमने विश्वविद्यालय के द्वारा पाश्चात्य विद्वानों की तटस्थ समालोचना मूलक प्रतिष्ठा प्राप्त करनी चाही पर हम भारतीय अभी तक अधिकांश में उससे वंचित ही रहे हैं । वेबर, मेक्समूलर, गायगर, लोयमन, पिशल, जेकोबी, ओोल्डनबर्ग, शार्पेन्टर, सिल्वन लेवी आदि गत युग के तथा डॉ० थॉमस, बेईली, बरो सडोर्फ, रेनु आदि वर्तमान युग के संशोधक विद्वान् आज भी
1
शुबिंग,
१. 'पालि प्रकाश' प्रवेशक पृ० १८८,
Jain Education International
टि० ४२ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org