Book Title: Darshan aur Chintan Part 1 2
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Sukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad

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Page 900
________________ सर्वज्ञत्व और उसका अर्थ हेतुवाद-अहेतुवाद ... प्रस्तुत लेख का आशय समझने के लिए प्रारम्भ में थोड़ा प्रास्ताविक विचार दर्शाना जरूरी है, जिससे पाठक वक्तव्य का भलीभाँति विश्लेषण कर सके । जीवन के श्रद्धा और बुद्धि ये दो मुख्य अंश हैं। वे परस्पर विभक्त नहीं हैं; फिर भी दोनों के प्रवृत्ति क्षेत्र या विषय थोड़े बहुत परिमाण में जुदे भी हैं। बुद्धि, तर्क, अनुमान या विज्ञान से जो वस्तु सिद्ध होती है उसमें श्रद्धा का प्रवेश सरल है, परन्तु श्रद्धा के समी विषयों में अनुमान या विज्ञान का प्रयोग संभव नहीं। अतीन्द्रिय अनेक तत्त्व ऐसे हैं जो जुदे-जुदे सम्प्रदाय में श्रद्धा के विषय बने देखे जाते हैं, पर उन तत्त्वों का निर्विवाद समर्थन अनुमान या विज्ञान की सीमा से परे है । उदाहरणार्थ, जो श्रद्धालु ईश्वर को विश्व के कर्ता-धर्ता रूप से मानते हैं या जो श्रद्धालु किसी में त्रैकालिक सर्वशत्व मानते हैं, वे चाहते तो हैं कि उनकी मान्यता अनुमान या विज्ञान से समर्थित हो, पर ऐसी मान्यता के समर्थन में जब तर्क या विज्ञान प्रयत्न करने लगता है तब कई बार बलवत्तर विरोधी अनुमान उस मान्यता को उलट भी देते हैं। ऐसी वस्तुस्थिति देखकर तत्त्वचिंतकों ने वस्तु के स्वरूपानुसार उसके समर्थन के लिए दो उपाय अलगअलंग बतलाए-एक उपाय है हेतुवाद, जिसका प्रयोगवर्तुल देश-काल की सीमा से परे नहीं। दूसरा उपाय है अहेतुवाद, जो देशकाल की सीमा से या इन्द्रिय और मन की पहुँच से पर ऐसे विषयों में उपयोगी है। इस बात को जैन परम्परा की दृष्टि से प्राचीन बहुश्रुत आचार्यों ने स्पष्ट भी किया है । जब उनके सामने धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा भव्यत्व १. दुविहो धम्मावाश्रो अहेउवाश्रो य हेउवाश्रो य । तत्थ उ अहेउवाो भवियाऽभवियादो भावा । भविश्रो सम्मइंसण-णाण-चरित्तपडिवत्तिसंपन्नों। णियमा दुक्खंतकडो त्ति लक्खणं हेउवायस्स | जो हेउवायपक्खम्मि हेउश्रो आगमे य आगमित्रो। सो ससमयपण्णवो सिद्धन्तविराहो अन्नो ॥ -सन्मति प्रकरण ३. ४३-५ तथा इन गाथाओं का गुजराती विवेचन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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