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सर्वशत्व और उसका अर्थ
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भव्यत्व के विभाग जैसे साम्प्रदायिक मान्यता के प्रश्न तर्क के द्वारा समर्थन के लिए उपस्थित हुए तब उन्होंने कह दिया कि ऐसे अतीन्द्रिय विषय हेतुवाद से सिद्ध हो नहीं सकते । उनको श्रहेतुवाद से ही मानकर चलना होगा । हेतुवाद का अर्थ है परम्परागत श्रागम पर या ऋषिप्रतिभा पर अथवा आध्यात्मिक प्रज्ञा पर विश्वास रखना ।
यह नहीं कि मात्र जैन परम्परा ने ही ऐसे हेतुवाद का आश्रय लिया हो । सभी धार्मिक परम्पराओं को अपनी किसी न किसी अतीन्द्रिय मान्यताओं के बारे में अपनी-अपनी दृष्टि से हेतुवाद का आश्रय लेना पड़ा है। जब वेदान्त को प्रतीन्द्रिय परमब्रह्म की स्थापना में तर्क बाधक दिखाई दिए तब उसने श्रुति का अन्तिम श्राश्रय लेने की बात कही और तर्काप्रतिष्ठानात् ' कह दिया । इसी तरह जब नागार्जुन जैसे प्रबल तार्किक को स्वभावनैरात्म्यरूप शून्य तत्त्व के स्थापन में तर्कवाद अधूरा या बाधक दिखाई दिया तब उसने प्रज्ञा का श्राश्रय लिया । केण्ट जैसे तत्त्वज्ञ ने भी देश-काल से पर ऐसे तत्त्व को बुद्धि या विज्ञान की सीमा से पर बतलाकर मात्र श्रद्धा का विषय सूचित किया । स्पेन्सर की आलोचना करते हुए विल डुरां ने स्वष्ट कह दिया कि ईश्वरवादी विज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करना छोड़ दें और वैज्ञानिक लोग ईश्वर तत्त्व या धर्म के विषय में प्रवेश करना छोड़ दें । यह एक प्रकार का विभाजन ही तो है !
हेतु श्रहेतुवाद के वर्तुल का
सर्वज्ञत्व जैन परम्परा की चिरश्रद्धेय और उपास्य वस्तु है । प्रश्न तो इतना ही है कि उसका अर्थ क्या ? और वह हेतुवाद का विषय है या श्रहेतुवाद का ? इसका उत्तर शताब्दियों से हेतुवाद के द्वारा दिया गया है । परन्तु बीच-बीच में कुछ श्राचार्य ऐसे भी हुए हैं जिनको इस विषय में हेतुवाद का उपयोग करना ठीक ऊँचा नहीं जान पड़ता । एक तरफ से सारे सम्प्रदाय में स्थिर ऐसी प्रचलित
सिद्धं चेद्धेतुतः सर्व न प्रत्यक्षादितो गतिः । सिंद्ध चेदागमात्सर्व विरुद्धार्थमतान्यपि ॥ विरोधान्नोभयैकारम्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । श्रावाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥ वक्तर्यनाप्ते यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाधितम् । श्राप्ते वक्तरि तद्वाक्यात् साध्यमागमसाधितम् ॥ - आप्तमीमांसा श्लो. ७६-८०
१. तर्काप्रतिष्ठानादप्यन्यथानुमेयमिति चेदेवमप्यविमोक्षप्रसंग: ।
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- ब्रह्मसूत्र २.१.११
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