________________
५०४
जैन धर्म और दर्शन तरह 'श्राचारांग' में भी 'सव्वे सरा निअटंति, तत्थ झुणी न विज्जइ" आदि द्वारा आत्मा के स्वरूप को वचनागोचर कहा है। बुद्ध ने भी अनेक वस्तुओं को अव्याकृत' शब्द के द्वारा वचनागोचर ही सूचित किया है। ___ जैन परम्परा में तो अनभिलाप्य भाव प्रसिद्ध हैं जो कभी वचनागोचर नहीं होते । मैं समझता हूँ कि सप्तभंगी में अवक्तव्य का जो अर्थ लिया जाता है वह पुरानी व्याख्या का वादाश्रित व तर्कगम्य दूसरा रूप है।।
सप्तभंगी के विचार प्रसंग में एक बात का निर्देश करना जरूरी है। श्रीशंकराचार्य के 'ब्रह्मसूत्र' २-२-३३ के भाष्य में सप्तभंगी को संशयात्मक ज्ञान रूप से निर्दिष्ट किया है। श्रीरामनुजाचार्य ने भी उन्हीं का अनुसरण किया है। यह हुई पुराने खण्डन मण्डन प्रधान साम्प्रदायिक युग की बात । पर तुलनात्मक और व्यापक अध्ययन के आधार पर प्रवृत्त हुए नए युग के विद्वानों का विचार इस विषय में जानना चाहिए । डॉ० ए० बी० ध्रुव, जो भारतीय तथा पाश्चात्य तत्त्वज्ञान की सब शखात्रों के पारदर्शी विद्वान् रहे खास कर शांकर वेदान्त के विशेष पक्षपाती भी रहे-उन्होंने अपने 'जैन अने ब्राह्मण' ४ भाषण में स्पष्ट कहा है कि सप्तभंगी यह कोई संशयज्ञान नहीं है। वह तो सत्य के नानाविध स्वरूपों की निदर्शक एक विचारसरणी है। श्रीनर्मदाशंकर मेहता, जो भारतीय समग्र तत्त्वज्ञान की परम्पराओं और खासकर वेद-वेदान्त की परम्परा के असाधारण मौलिक विद्वान थे; और जिन्होंने 'हिन्द तत्त्वज्ञान नो इतिहास'५ श्रादि अनेक अभ्यासपूर्ण पुस्तक लिखी हैं, उन्होंने भी सप्तभंगी का निरूपण बिलकुल असाम्प्रदायिक दृष्टि से किया है, जो पठनीय है । सर राधाकृष्णन, डॉ. दासगुप्त आदि तत्त्व चिन्तकों ने भी सप्तभंगी का निरूपण जैन दृष्टिकोण को बराबर समझ कर ही किया है। यह बात मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि साम्प्रदायिक और असाम्प्रदायिक अध्ययन का अन्तर ध्यान में आ जाय ।
चारित्र के दो अंग हैं, जीवनगत आगन्तुक दोषों की दूर करना यह पहला,
१. आचारांग सू० १७० । २. मज्झिमनिकायसुत्त ६३ ।। ३. विशेषा० भा० १४१, ४८८ । ४. आपणो धर्म पृ० ६७३ । ५. पृ० २१३-२१६ ।
६. राधाकृष्णन-इण्डियन फिलॉसॉफी वॉल्यूम १, पृ० ३०२ । दासगुप्ता-ए हिस्ट्री ऑफ इन्डियन फिलॉसॉफी वॉल्यूम १, पृ० १७६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org