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५३.२..
जैन धर्म और दर्शन. की भावना भाना सिद्ध-भक्ति है और योगियों ( मुनियों) के गुणों की भावना भाना योगि-भक्ति । .., (३५) प्र०—पहिले अरिहन्तों को और पीछे सिद्धादिकों को नमस्कार करने का क्या सबब है ? .. उ०-वस्तु को प्रतिपादन करने के क्रम दो होते हैं । एक पूर्वानुपूर्वी और दूसरा पश्चानुपूर्वी । प्रधान के बाद अप्रधान का कथन करना पूर्वानुपूर्वी है और अप्रधान के बाद प्रधान का कथन करना पश्चानुपूर्वी है । पाँचों परमेष्ठियों में 'सिद्ध' सबसे प्रधान हैं और 'साधु' सबसे अप्रधान, क्योंकि सिद्ध-अवस्था चैतन्य. शक्ति के विकास की आखिरी हद्द है और साधु-अवस्था उसके साधन करने की प्रथम भूमिका है। इसलिए यहाँ पूर्वानुपूर्वी कम से नमस्कार किया गया है।
(३६) प्र०- अगर पाँच परमेष्ठियों की नमस्कार पूर्वानुपूर्वी क्रम से किया गया है तो पहिले सिद्धों को नमस्कार किया जाना चाहिए, अरिहन्तों को कैसे ?
उ०-यद्यपि कर्म विनाश ' की अपेक्षा से 'अरिहन्तों' से सिद्ध' श्रेष्ठ हैं। तो भी कृतकृस्यता की अपेक्षा से दोनों समान ही हैं और व्यवहार की अपेक्षा से तो 'सिद्ध' से 'अरिहन्त' ही श्रेष्ठ हैं । क्योंकि 'सिद्धों' के परोक्ष स्वरूप को बतलाने वाले 'अरिहन्त' ही तो हैं। इसलिए व्यवहार-अपेक्षया 'अरिहन्तों को श्रेष्ठ गिनकर पहिले उनको नमस्कार किया गया है।
ई० १६२१]
[पंचप्रतिक्रमण
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