________________
प्राचार्यादि का स्वरूप
५३१ - उ.--निश्चय दृष्टि से तीनों का स्वरूप एक-सा होता है। तीनों में मोक्षमार्ग के अाराधन की तत्परता और बाह्य-श्राभ्यन्तर-निर्ग्रन्थता आदि नैश्चयिक और पारमार्थिक स्वरूप समान होता है। पर ब्यावहारिक स्वरूप तीनों का थोड़ा-बहुत भिन्न होता है। प्राचार्य की व्यावहारिक योग्यता सबसे अधिक होती है। क्योंकि उन्हें गच्छ पर शासन करने तथा जैन शासन की महिमा को सम्हालने की जवाबदेही लेनी पड़ती है। उपाध्याय को आचार्यपद के योग्य बनने के लिये कुछ विशेष गुण प्राप्त करने पड़ते हैं जो सामान्य साधुओं में नहीं भी होते।
(२६) परमेष्ठियों का विचार तो हुआ। अब यह बतलाइए कि उनको नमसार किसलिए किया जाता है ?
उ.--गुणप्राप्ति के लिए। वे गुणवान् हैं, गुणवानों को नमस्कार करने से गुण की प्राप्ति अवश्य होती है क्योंकि जैसा ध्येय हो ध्याता वैसा ही बन जाता है। दिन-रात चोर और चोरी की भावना करने वाला मनुष्य कभी प्रामाणिक ( साहूकार ) नहीं बन सकता। इसी तरह विद्या और विद्वान् की भावना करने वाला अवश्य कुछ-न-कुछ विद्या प्राप्त कर लेता है।
(३०) नमस्कार क्या चीज है ? ।
उ०--वड़ों के प्रति ऐसा बर्ताव करना कि जिससे उनके प्रति अपनी लघुता तथा उनका बहुमान प्रकट हो, वही नमस्कार है।
(३१) क्या सब अवस्था में नमस्कार का स्वरूप एक-सा ही होता है ?
उ० –नहीं । इसके द्वैत और अदरत, ऐसे दो भेद हैं। विशिष्ट स्थिरता प्राप्त न होने से जिस नमस्कार में ऐसा भाव हो कि मैं उपासना करनेवाला हूँ
और अमुक मेरी उपासना का पात्र है, वह द्वैतनमस्कार है। रागद्वेष के विकल्प नष्ट हो जाने पर चित्त की इतनी अधिक स्थिरता हो जाती है कि जिसमें प्रात्मा अपने को ही अपना उपास्य समझता है और केवल स्वरूप का ही ध्यान करता है, वह अद्वैत-नमस्कार है।
(३२) प्र०-उक्त दोनों में से कौन सा नमस्कार श्रेष्ठ है ? उ.-अद्वैत । क्योंकि द्वैत नमस्कार तो अद्वैत का साधनमात्र है ।
(३३) प्र० --मनुष्य की बाह्य-प्रवृत्ति, किसी अन्तरङ्ग भाव से प्रेरी हुई होती है। तो फिर इस नमस्कार का प्रेरक, मनुष्य का अन्तरङ्ग भाव क्या है ?
उ.-भक्ति । प्र० -उसके कितने भेद हैं ? उ.--दो । एक सिद्ध-भक्ति और दूसरी योगि-भक्ति । सिद्धों के अनन्त गुणों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org