Book Title: Darshan aur Chintan Part 1 2
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Sukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad

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Page 894
________________ ५४४ जैन धर्म और दर्शन सच्चे पालन का कोई रास्ता दिखा न सकते थे । वे थक कर यही कहते थे कि अगर सच्चा धर्म पालन करना हो तो तुम लोग घर छोड़ो, कुटुम्ब समाज और राष्ट्र की जवाबदेही छोड़ो, ऐसी जबावदेही और सत्य-अहिंसा अपरिग्रह का शुद्ध पालनदोनों एक साथ संभव नहीं । ऐसी मनोदशा के कारण त्यागी गण देखने में अवश्य अनगार था; पर उसका जीवन तत्त्वदृष्टि से किसी भी प्रकार गृहस्थों की अपेक्षा विशेष उन्नत या विशेष शुद्ध बनने न पाया था। इसलिए जैन समाज की स्थिति ऐसी हो गई थी कि हजारों की संख्या में साधु-साध्वियों के सतत होते रहने पर भी समाज के उत्थान का कोई सच्चा काम होने न पाता था और अनुयायी गृहस्थवर्ग तो साधु साध्वियों के भरोसे रहने का इतना आदी हो गया था कि वह हरएक बात में निकम्मी प्रथा का त्याग, सुधार, परिवर्तन वगैरह करने में अपनी बुद्धि और साहस ही गवाँ बैठा था। त्यागी वर्ग कहता था कि हम क्या करें? यह काम तो गृहस्थों का है। गृहस्थ कहते थे कि हमारे सिरमौर गुरु हैं। वे महावीर के प्रतिनिधि हैं, शास्त्रज्ञ हैं, वे हमसे अधिक जान सकते हैं, उनके सुझाव और उनकी सम्मति के बिना हम कर ही क्या सकते हैं ? गृहस्थों का असर ही क्या पड़ेगा ? साधुओं के कथन को सब लोग मान सकते हैं इत्यादि । इस तरह अन्य धर्म समाजों की तरह जैन समाज की नैया भी हर एक क्षेत्र में उलझनों की भँवर में फंसी थी। . सारे राष्ट्र पर पिछली सहस्राब्दी ने जो आफतें ढाई थीं और पश्चिम के सम्पर्क के बाद विदेशी राज्य ने पिछली दो शताब्दियों में गुलामी, शोषण और आपसी फूट की जो आफत बढ़ाई थी उसका शिकार तो जैन समाज शतप्रतिशत था ही, पर उसके अलावा जैनसमाज के: अपने निजी श्री.प्रश्न थे। जो उलझनों से पूर्ण थे । आपस में फिरकाबन्दी, धर्म के निमित्त अधर्म पोषक झगड़े, निवृत्ति के नाम पर निष्क्रियता और ऐदीपन की बाढ़, नई पीढ़ी में पुरानी चेतना का विरोध और नई चेतना का अवरोध, सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह जैसे शाश्वत मूल्य वाले सिद्धान्तों के प्रति सब की देखा देखी बढ़ती हुई अश्रद्धा-ये जैन समाज की समस्याएँ थीं।। इस अन्धकार प्रधान रात्रि में अफ्रिका से एक कर्मवीर की हलचल ने लोगों की आँखें खोली। वही कर्मवीर फिर अपनी जन्म-भूमि भारत में पीछे लौटा। आते ही सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह की निर्भय और गगनभेदी वाणी शान्तस्वर से और जीवन-व्यवहार से सुनाने लगा। पहले तो जैन समाज अपनी संस्कार-च्युति के कारण चौंका । उसे भय मालूम हुआ कि दुनिया की प्रवृत्ति या सांसारिक राजकीय प्रवृत्ति के साथ सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह का मेल कैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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