Book Title: Darshan aur Chintan Part 1 2
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Sukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad

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Page 887
________________ 'वेदसाम्य-वैषम्य' श्रीमान् प्रो० हीरालालजी की सेवा में सप्रणाम निवेदन ! आज मैंने 'सिद्धान्त - समीक्षा' पूरी कर ली । अभी जितना संभव था उतनी ही एकाग्रता से सुनता रहा । यत्र तत्र प्रश्न विचार और समालोचक भाव उठता था अतः चिह्न भी करता गया, पर उन उठे हुए प्रश्नों, विचारों और समालोचक भावों को पुनः संकलित करके लिखने मेरे लिए संभव नहीं । उसमें जो समय और शक्ति आवश्यक है वह यदि मिल भी जाय तथापि उसका उपयोग करने का भी तो कोई उत्साह नहीं है । और खास बात तो यह है कि मेरा मन मुख्यतया व मानवता के उत्कर्ष का ही विचार करता है । 1 तो भी समीक्षा के बारे में मेरे मन पर पड़ी हुई छाप को संक्षेप में लिख देना इसलिए जरूरी है कि मैं आपके आग्रह को मान चुका हूँ । सामान्यतयाः आप और पं० फूलचन्दजी दोनों ऐसे समकक्ष विचारक जान पढ़ते हैं जिनका चर्चायोग विरल और पुण्यलभ्य कहा जा सकता है । जितनी गहरी, मर्मस्पर्शी और परिश्रमसाध्य चर्चा आप दोनों ने की है वह एक खासा शास्त्र ही बन गया है । इस चर्चा में एक ओर पंडित मानस दूसरी ओर प्रोफेसर मानस - ये दोनों परस्पर विरुद्ध कक्षा वाले होने पर भी प्रायः समत्व, शिष्टता, और आधुनिकता की भूमिका के ऊपर कांम करते हुए देखे जाते हैं । जैसा कि बहुत कम अन्यत्र संभव है । इसलिए वह चर्चा शास्त्रपद को प्राप्त हुई है । आगे जब कभी कोई विचार करेगा तब इसे अनिवार्य रूप से देखना ही पढ़ेगा । इतना इस चर्चा का तात्त्विक और ऐतिहासिक महत्व मुझको स्पष्ट मालूम होता है । यद्यपि मैं सब पण्डितों को नहीं जानता तथापि जितनों को जानता हूँ उनकी अपेक्षा से कहा जा सकता है कि इस विषय में पं० फूलचन्दजी का स्थान अन्यों से ऊँचा है । दूसरे ग्रंथपाठी होंगे पर इतने अधिक अर्थ-स्पर्शी शायद ही हों । कितना अच्छा होता यदि ऐसे पण्डित को कोई अच्छा पद, अच्छा स्थान देकर काम लिया जाता । यदि ऐसे पण्डित को पूर्ण स्वतन्त्रता के साथ पूरा अर्थसाधन • दिया जाय तो बहुत कुछ शास्त्रीय प्रगति हो सकती है। पण्डित और गृहस्थ ऐसे सुयोग्य पण्डितों को अयोग्य रूप से निचोड़ते हैं । मेरा वश चले तो मैं ऐसों का स्थान बहुत स्वाधीन कर दूँ । अस्तु यह तो प्रासङ्गिक बात हुई । अभी तो अर्थप्रधान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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