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'न्यायकुमुदचन्द्र'
४७५ वस्तु का कभी भी नहीं हो सकेगा, चाहे उसके बलवत्तर कितने ही प्रमाण क्यों न हों । अस्तु । ___ अन्त में मैं पंडितजी की प्रस्तुत गवेषणापूर्ण और श्रमसाधित सत्कृति का सच्चे हृदय से अभिनन्दन करता हूँ, और साथ ही जैन समाज, खासकर दिगम्बर समाज के विद्वानों और श्रीमानों से भी अभिनन्दन करने का अनुरोध करता हूँ। विद्वान् तो पंडितजी की सभी कृतियों का उदारभाव से अध्ययन अध्यापन करके अभिनन्दन कर सकते हैं और श्रीमान् पंडितजी की साहित्यप्रवण शक्तियों का अपने साहित्योत्कर्ष तथा भण्डारोद्धार आदि कार्यों में विनियोग कराकर अभिनन्दन कर सकते हैं। ... मैं पंडितजी से भी एक अपना नम्र विचार कहे देता हूँ। यह वह है कि
आगे अब वे दार्शनिक प्रमेयों को, खासकर जैन प्रमेयों को केन्द्र में रखकर उन पर तात्त्विक दृष्टि से ऐसा विवेचन करें जो प्रत्येक या मुख्य-मुख्य प्रमेय के स्वरूप का निरूपण करने के साथ ही साथ उसके संबन्ध में सब दृष्टियों से पकाश डाल सके। ई० १६४१]
[न्यायकुमुदचन्द्र भाग २ का प्राकथन
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