________________
४७८
जैन धर्म और दर्शन था । जो दिङ्नाग, भर्तृहरि, कुमारिल और धर्मकीर्ति के ग्रन्थों के साथ समन्तभद्र की कृतियों की बाह्यान्तर तुलना करेगा और जैन संस्कृत साहित्य के विकासक्रम की ओर ध्यान देगा वह मेरा उपर्युक्त विचार बड़ी सरलता से समझ लेगा। अधिक संभव तो यह है कि समन्तभद्र और अकलंक के बीच साक्षात् विद्या का संबन्ध हो; क्योंकि समन्तभद्र की कृति के ऊपर सर्वप्रथम अकलंक की व्याख्या है। यह हो नहीं सकता कि अनेकान्त दृष्टि को असाधारण रूप से स्पष्ट करनेवाली समन्तभद्र की विविध कृतियों में अतिविस्तार से और आकर्षक रूप से प्रतिपादित सप्तभंगियों को तत्वार्थ की व्याख्या में अकलंक तो सर्वथा अपनाएँ, जब कि पूज्यपाद अपनी व्याख्या में उसे छुएँ तक नहीं। यह भी संभव है कि-शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह-गत पात्रस्वामी शब्द स्वामी समन्तभद्र का ही सूचक हो। कुछ भी हो पर इतना निश्चित है कि श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेन के बाद तुरन्त जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हुए और दिगम्बर परम्परा में स्वामी समन्तभद्र के बाद तुरन्त ही अकलंक आए। जिनभद्र और अकलंक___यद्यपि श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों परम्परा में संस्कृत की प्रतिष्ठा बढ़ती चली। फिर भी दोनों में एक अन्तर स्पष्ट देखा जाता है, वह यह कि दिगम्बर परम्परा संस्कृत की ओर झुकने के बाद दार्शनिक क्षेत्र में अपने प्राचार्यों को केवल संस्कृत में ही लिखने को प्रवृत्त करती है जब कि श्वेताम्बर परम्परा अपने विद्वानों को उसी विषय में प्राकृत रचनाएँ करने को भी प्रवृत्त करती है। यही कारण है कि श्वेताम्बरीय साहित्य में सिद्धसेन से यशोविजयजी तक की दार्शनिक चिन्तनवाली प्राकृत कृतियाँ भी मिलती है । जब कि दिगम्बरीय साहित्य में मात्र संस्कृतनिबद्ध ही वैसी कृतियाँ मिलती है। श्वेताम्बर परम्परा का संस्कृत युग में भी प्राकृत भाषा के साथ जो निकट और गंभीर परिचय रहा है, वह दिगम्बरीय साहित्य में विरल होता गया है । क्षमाश्रमण जिनभद्र ने अपनी कृतियाँ प्राकृत में रची जो तर्कशैली की होकर भी आगमिक ही हैं। भट्टारक अकलंक ने अपनी विशाल और अनुपम कृति राजवार्तिक संस्कृत में लिखी, जो विशेषावश्यक भाष्य की तरह तर्कशैली की होकर भी आगमिक ही है। परन्तु जिनभद्र की कृतियों में ऐसी कोई स्वतन्त्र संस्कृत कृति नहीं है जैसी अकलंक की है। अकलंक ने आगमिक ग्रन्थ राजवार्तिक लिखकर दिगम्बर साहित्य में एक प्रकार से विशेषावश्यक के स्थान की पूर्ति तो की, पर उनका ध्यान शीघ्र ही ऐसे प्रश्न पर गया जो जैन परम्परा के सामने जोरों से उपस्थित था । बौद्ध और ब्राह्मण प्रमाणशास्त्रों की कक्षा में खड़ा रह सके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org