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'जैन तर्कभाषा किया जाए, तो जैन परंपरा के चारों अनुयोग तथा आगमिक, तार्किक कोई विषय. अज्ञात न रहेंगे।
उदयन और गंगेश जैसे मैथिल तार्किक पुंगवों के द्वारा जो नव्य तर्कशास्त्र का बीजारोपण व विकास प्रारंभ हुआ, और जिसका व्यापक प्रभाव व्याकरण, साहित्य, छंद, विविध दर्शन और धर्मशास्त्र पर पड़ा, और खूब फैला उस विकास से वंचित सिर्फ दो सम्प्रदाय का साहित्य रहा । जिनमें से बौद्ध साहित्य की उस त्रुटि की पूर्ति का तो संभव ही न रहा था, क्योंकि बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के बाद भारतवर्ष में बौद्ध-विद्वानों की परंपरा नामगात्र को भी न रही, इसलिए वह त्रुटि इतनी नहीं अखरती जितनी जैन साहित्य की वह त्रुटि । क्योंकि जैन संप्रदाय के सैकड़ों ही नहीं, बल्कि हजारों साधन संपन्न त्यागी व कुछ गृहस्थ भारतवर्ष के प्रायः सभी भागों में मौजूद रहे, जिनका मुख्य व जीवनव्यापी ध्येय शास्त्र चिंतन के सिवाय और कुछ कहा ही नहीं जा सकता। इस जैन साहित्य की कमी को दूर करने और अकेले हाथ से दूर करने का उज्जवल व स्थायी यश अगर किसी जैन विद्वान् को है, तो वह उपाध्याय यशोविजयजी को ही है।
ग्रन्थ
प्रस्तुत ग्रन्थ के जैन तर्कभाषा इस नामकरण का तथा उसे रचने की कामना उत्पन्न होने का, उसके विभाग, प्रतिपाद्य विषय का चुनाव आदि का बोधप्रद व मनोरञ्जक इतिहास है जो अवश्य ज्ञातव्य है ।
__ जहाँ तक मालूम है इससे पता चलता है कि प्राचीन समय में तर्कप्रधान दर्शन ग्रन्थों के चाहे वे वैदिक हों, बौद्ध हों या जैन हों- नाम न्याय पद युक्त हुआ करते थे। जैसे कि न्यायसूत्र, न्यायभाष्य, न्यायवार्तिक, न्यायसार, न्यायमंजरी, न्यायमुख, न्यायावतार आदि । अगर प्रो० ट्यूचीका रखा हुआ 'तर्कशास्त्र' यह नाम असल में सच्चा ही है या प्रमाण समुच्चय वृत्ति में निर्दिष्ट 'तर्कशास्त्र" नाम सही है, तो उस प्राचीन समय में पाये जाने वाले न्यायशब्द युक्त नामों की परम्परा का यह एक ही अपवाद है जिसमें कि न्याय शब्द के बदले तर्कशब्द हो। ऐसी पम्परा के होते हुए भी न्याय शब्द के स्थान में 'तर्क' शब्द लगाकर तर्क भाषा नाम रखनेवाले और उस नाम से धर्मकीर्तिकृत न्यायविन्दु के पदार्थों पर ही एक प्रकरण लिखनेवाले बौद्ध विद्वान् मोक्षाकर हैं जो बारहवीं ; शताब्दी के माने जाते हैं। मोक्षाकर की इस तर्कभाषा कृति का प्रभाव वैदिक विद्वान् केशव मिश्र पर पड़ा हुआ जान पड़ता है, जिससे उन्होंने
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१ Pre-Dignaga Budhist logic गत तर्कशास्त्र' नामक ग्रंथ । .
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