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एकेन्द्रिय
३० __ श्राहार का अभिलाष, क्षुधावेदनीय कर्म के उदय से होनेवाला आत्मा का परिणाम-विशेष (अध्यवसाय) है। यथा. 'आहारसंज्ञा आहाराभिलाषः क्षुद्वेदनीयोदयप्रभवः खल्वात्मपरिणाम इति ।
-आवश्यक, हारिभद्री वृत्ति पृ० ५८० । इस अभिलाष रूप अध्यवसाय में 'मुझे अमुक वस्तु मिले तो अच्छा', इस प्रकार का शब्द और अर्थ का विकल्प होता है । जो अध्यवसाय विकल्प सहित होता है, वही श्रुतज्ञान कहलाता है । यथा
'इन्दियमणोनिमित्तं, जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं । निययत्थुत्तिसमत्थं, तं भावसुयं मई सेसें ॥१००।'
--विशेषावश्यक । अर्थात् इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होने वाला ज्ञान, जो नियत अर्थ का कथन करने में समर्थ श्रुतानुसारी ( शब्द तथा अर्थ के विकल्प से युक्त) है, उसे 'भावश्रुत' तथा उससे भिन्न ज्ञान को 'मतिज्ञान' समझना चाहिए । अब यदि एकेन्द्रियों में श्रुत-उपयोग न माना जाए तो उनमें आहार का अभिलाष जो शास्त्र-सम्मत है, वह कैसे घट सकेगा ? इसलिए बोलने और सुनने की शक्ति न होने पर भी उनमें अत्यन्त सूक्ष्म श्रुत-उपयोग अवश्य ही मानना चाहिए । ___ भाषा तथा श्रवणलब्धि वालों को ही भाव श्रुत होता है, दूसरे को नहीं, इस शास्त्र-कथन का तात्पर्य इतना ही है कि उक्त प्रकार की शक्तिवाले को स्पष्ट भावश्रुत होता है और दूसरों को अस्पष्ट ।
(७) 'योगमार्गणा'
तीन योगों के बाह्य और प्राभ्यन्तर कारण दिखा कर उनकी व्याख्या राजवार्तिक में बहुत ही स्पष्ट की गई है। उसका सारांश इस प्रकार है. (क) बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से होनेवाला जो मनन के अभिमुख आत्मा का प्रदेश-परिस्पन्द, वह 'मनोयोग' है । इसका बाह्य कारण, मनोवर्गणा का आलम्बन और आभ्यन्तर कारण, वीर्यान्तरायकर्म का क्षय-क्षयोपशम तथा नोइन्द्रियावरणकर्मका क्षय-क्षयोपशम (मनोलब्धि) है ।
(ख) बाह्य और आभ्यन्तर कारण-जन्य आत्मा का भाषाभिमुख प्रदेश-परिस्पन्द 'वचनयोग' है । इसका बाह्य कारण पुद्गलविपाकी शरीरनामकर्म के उदय से
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