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जैन धर्म और दर्शन बहुत उपयुक्त है । इस प्रकार जैन परम्परा में न्याय, सांख्य और वैशेषिक तीनों दर्शन सम्मत प्रमाण विभाग प्रविष्ट हुआ। यहां पर सिद्धसेनस्वीकृत इस त्रिविष प्रमाणविभाग की जैन परम्परा में, आर्यरक्षितीय चतुर्विध विभाग की तरह, उपेक्षा ही हुई या उसका विशेष आदर हुआ ?-यह प्रश्न अवश्य होता है, जिस पर हम आगे जाकर कुछ कहेंगे।
(६) छठी भूमिका, वि० ७ वीं शताब्दी वाले जिनभद्र गणी की है। प्राचीन समय से कर्मशास्त्र तथा आगम की परम्परा के अनुसार जो मति, श्रुत
आदि पाँच ज्ञानों का विचार जैन परम्परा में प्रचलित था, और जिसपर नियुक्तिकार तथा प्राचीन अन्य व्याख्याकारों ने एवं नंदी जैसे आगम के प्रणेताओं ने, अपनी अपनी दृष्टि व शक्ति के अनुसार, बहुत कुछ कोटिक्रम भी बढ़ाया था, उसी विचारभूमिका का आश्रय लेकर क्षमाश्रमण जिनभद्र ने अपने विशाल ग्रन्थ 'विशेषावश्यकभाष्य' में पञ्चविध ज्ञान की प्राचूडांत साङ्गोपांग मीमांसा
की। और उसी अागम सम्मत पञ्चविध ज्ञानों पर तर्कदृष्टि से अागम प्रणाली का समर्थ करनेवाला गहरा प्रकाश डाला। 'तत्त्वाथेसूत्र' पर व्याख्या लिखते समय, पूज्यपाद देवनन्दी और भट्टारक अकलंक ने भी पञ्चविध ज्ञान के समर्थन में, मुख्यतया तकप्रणाली का ही अवलंबन लिया है । क्षमाश्रमण की इस विकास, भूमिका को तर्कोपजीवी भागम भूमिका कहनी चाहिए, क्योंकि उन्होंने किसी भी जैन तार्किक से कम तार्किकता नहीं दिखाई: फिर भी उनका सारा तर्क बल श्रागमिक सीमाओं के घेरे में ही घिरा रहा—जैसा कि कुमारिल तथा शंकराचार्य का सारा तर्कबल श्रुति की सीमाओं के घेरे में ही सीमित रहा। क्षमाश्रमण ने अपने इस विशिष्ट आवश्यक भाष्य में ज्ञानों के बारे में उतनी अधिक विचार सामग्री व्यवस्थित की है कि जो आगे के सभी श्वेताम्बर ग्रन्थ प्रणेताओं के लिए मुख्य आधारभूत बनी हुई हैं । उपाध्यायजी तो जब कभी जिस किसी प्रणाली से ज्ञानों का निरू पण करते हैं तब मानों क्षमाश्रमण के विशेषावश्यकभाष्य को अपने मन में पूर्ण रूपेण प्रतिष्ठित कर लेते हैं । प्रस्तुतु ज्ञानबिन्दु में भी उपाध्यायजी ने वही किया है ।
१ विशेषावश्यक भाष्य में ज्ञानपञ्चकाधिकार ने ही ८४० गाथाएँ जितना बड़ा भाग रोक रखा है। कोट्याचार्य की टीका के अनुसार विशेषावश्यक की सब मिलकर ४३४६ गाथाएँ हैं।
२ पाठकों को इस बात की प्रतीति, उपाध्यायजी कृत जैनतर्कभाषा को, उसकी टिप्पणों के साथ देखने से हो जायगी।
३ देखो,ज्ञानबिन्दु की टिप्पणी पृ० ६१,६८-७३ इत्यादि ।
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