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केवलज्ञान के कारण
४३१ वेदान्त दर्शन भी अन्य सर्वज्ञवादियों की तरह सर्व-पूर्ण ब्रह्मविषयक साक्षात्कार मानकर अपने को सर्वसाक्षात्कारात्मक केवलज्ञान का माननेवाला बतलाता है और मीमांसक के मन्तव्य से जुदा पड़ता है; फिर भी एक मुद्दे पर मीमांसक और वेदान्त की एकवाक्यता है। वह मुद्दा है शास्त्रसापेक्षता का। मीमांसक कहता है कि सर्वविषयक परोक्ष ज्ञान भी शास्त्र के सिवाय हो नहीं सकता । वेदान्त ब्रह्मसाक्षात्कार रूप सर्वसाक्षात्कार को मानकर भी उसी बात को कहता है। क्योंकि वेदान्त का मत है कि ब्रह्मज्ञान भले ही साक्षात्कार रूप हो, पर उसका संभव वेदान्तशास्त्र के सिवाय नहीं है । इस तरह मूल में एक ही वेदपथ पर प्रस्थित मीमांसक और वेदान्त का केवल ज्ञान के स्वरूप के विषय में मतभेद होते हुए भी उसके उत्पादक कारण रूप से एक मात्र वेद शास्त्र का स्वीकार करने में कोई भी मतभेद नहीं।
(३) केवल ज्ञान के उत्पादक कारणों का प्रश्न [५६ ] केवल ज्ञान के उत्पादक कारण अनेक हैं, जैसे-भावना, अदृष्ट, विशिष्ट शब्द और आवरणक्षय आदि । इनमें किसी एक को प्राधान्य और बाकी • को अप्राधान्य देकर विभिन्न दार्शनिकों ने केवलज्ञान की उत्पत्ति के जुदे-जुदे
कारण स्थापित किए हैं। उदाहरणार्थ-सांख्य-योग और बौद्ध दर्शन केवल ज्ञान के जनक रूप से भावना का प्रतिपादन करते हैं, जब कि न्याय-वैशेषिक दर्शन योगज अदृष्ट को केवलज्ञानजनक बतलाते हैं। वेदान्त 'तत्त्वमसि' जैसे महावाक्य को केवलज्ञान का जनक मानता है, जब कि जैन दर्शन केवलज्ञानजनकरूप से प्रावरण-कर्म-क्षय का ही स्थापन करता है । उपाध्यायजी ने भी प्रस्तुत ग्रंथ में कर्मक्षय को ही केवलज्ञानजनक स्थापित करने के लिए अन्य पक्षों का निरास किया है।
मीमांसा जो मूल में केवलज्ञान के ही विरुद्ध है उसने सर्वज्ञत्व का असंभव दिखाने के लिए भावनामूलक ' सर्वज्ञत्ववादी के सामने यह दलील की है किभावनाजन्य ज्ञान यथार्थ हो ही नहीं सकता; जैसा कि कामुक व्यक्ति का भावनामूलक स्वाप्निक कामिनीसाक्षात्कार । । ६१] दूसरे यह कि भावनाज्ञान परोक्ष होने से अपरोक्ष साक्ष्य का जनक भी नहीं हो सकता। तीसरे यह कि अगर भावना को सार्वड्यजनक माना जाए तो एक अधिक प्रमाण भी [ पृ० २० पं० २३ ] मानना पड़ेगा। मीमांसा के द्वारा दिये गए उक्त तीनों दोषों में से पहले दो दोषों का उद्धार तो बौद्ध, सांख्य-योग आदि सभी भावनाकारणवादी
१ देखो, ज्ञानबिन्दु, टिप्पण, पृ० १०८ पं० २३ से ।
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