________________
४३८
जैन धर्म और दर्शन हैं। अतएव यह तो कहने की जरूरत ही नहीं कि उपाध्यायजी की खण्डन युक्तियाँ प्रायः वे ही हैं जो अन्य द्वैतवादियों की होती हैं ।
प्रस्तुत खण्डन में उपाध्यायजी ने मुख्यतया चार मुद्दों पर आपत्ति उठाई है । (१)[७३ ] अखण्ड ब्रह्म का अस्तित्व । (२) [८४ ] ब्रह्माकार और ब्रह्मविषयक निर्विकल्पक वृत्ति । (३) [१४] ऐसी वृत्ति का शब्दमात्रजन्यत्व । (४) [७६ ] ब्रह्मज्ञान से अज्ञानादि की निवृत्ति । इन चारों मुद्दों पर तरह-तरह से आपत्ति उठाकर अन्त में यही बतलाया है कि अद्वैतसंमत ब्रह्मज्ञान तथा उसके द्वारा अज्ञाननिवृत्ति की प्रक्रिया ही सदोष और त्रुटिपूर्ण है । इस खण्डन प्रसंग में उन्होंने एक वेदान्तसंमत अति रमणीय और विचारणीय प्रक्रिया का भी सविस्तार उल्लेख करके खण्डन किया है। वह प्रक्रिया इस प्रकार है-[७६ ] वेदान्त पारमार्थिक, व्यावहारिक और प्रतिभासिक ऐसी तीन सत्ताएँ मानता है जो अज्ञानगत तीन शक्तियों का कार्य है । अज्ञान को प्रथमा शक्ति ब्रह्मभिन्न वस्तुओं में पारमार्थिकत्व बुद्धि पैदा करती है जिसके वशीभूत होकर लोग बाह्य वस्तुओं को पारमार्थिक मानते और कहते हैं । नैयायिकादि दर्शन, जो आत्मभिन्न वस्तुओं का भी पारमार्थिकत्व मानते हैं, वह अज्ञानगत प्रथम शक्ति का ही परिणाम है अर्थात् आत्मभिन्न बाह्य वस्तुओं को पारमार्थिक समझने वाले सभी दर्शन प्रथमशक्तिगर्भित अज्ञानजनित है। जब वेदान्तवाक्य से ब्रह्मविषयक श्रवणादि का परिपाक होता है तब वह अज्ञान की प्रथम शक्ति निवृत्त होती है जिसका कि कार्य था प्रपञ्च में पारमार्थिकत्व बुद्धि करना । प्रथम शक्ति के निवृत्त होते ही उसकी दूसरी शक्ति अपना कार्य करती है। वह कार्य है प्रपञ्च में व्यावहारिकत्व की प्रतीति । जिसने श्रवण, मनन, निदिध्यासन सिद्ध किया हो वह प्रपञ्च में पारमार्थिकत्व कभी जान नहीं सकता पर दूसरी शक्ति द्वारा उसे प्रपञ्च में व्यावहारिकत्व की प्रतीति अवश्य होती है। ब्रह्मसाक्षात्कार से दूसरी शक्ति का नाश होते ही तजन्य व्यावहारिक प्रतीति का भी नाश हो जाता है । जो ब्रह्मसाक्षात्कारवान् हो वह प्रपञ्च को व्यावहारिक रूप से नहीं जानता पर तीसरी शक्ति के शेष रहने से उसके बल से वह प्रपञ्च को प्रातिभासिक; रूप से प्रतीत करता है । वह तीसरी शक्ति तथा उसका प्रातिभासिक प्रतीतिरूप कार्य ये अंतिम बोध के साथ निवृत्त होते हैं और तभी बन्ध-मोक्ष की प्रक्रिया भी समाप्त होती है।
उपाध्यायजी ने उपर्युक्त वेदान्त प्रक्रिया का बलपूर्वक खण्डन किया है । क्योंकि अगर वे उस प्रक्रिया का खण्डन न करें तो इसका फलितार्थ यह होता है कि वेदांत के कथनानुसार जैन दर्शन भी प्रथमशक्तियुक्त अज्ञान का ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org