________________
दार्शनिक परिभाषाओं की तुलना
३६५ अपनी उपाधि हटने पर वे नहीं रहते । मुक्त दशा में सभी पर्याय सव प्रकार की बाह्य उपाधि से मुक्त ही माने जाते हैं।
दार्शनिक परिभाषाओं की तुलना - उपाध्यायजी ने जैनप्रक्रिया-अनुसारी जो भाव जैन परिभाषा में बतलाया है वही भाव परिभाषाभेद से इतर भारतीय दर्शनों में भी यथावत् देखा जाता है । सभी दर्शन आध्यात्मिक विकासक्रम बतलाते हुए संक्षेप में उत्कट मुमुक्षा, जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति इन तीन अवस्थाओं को समान रूप से मानते हैं, और वे जीवन्मुक्त स्थिति में, जब कि क्लेश और मोह का सर्वथा अभाव रहता है तथा पूर्ण ज्ञान पाया जाता है; विपाकारम्भी आयुष अादि कर्म की उपाधि से देहधारण और जीवन का अस्तित्व मानते हैं; तथा जब विदेह मुक्ति प्राप्त होती है तब उक्त आयुष आदि कर्म की उपाधि सर्वथा न रहने से तजन्य देहधारण आदि कार्य का अभाव मानते हैं । उक्त तीन अवस्थाओं को स्पष्ट रूप से जताने वाली दार्शनिक परिभाषाओं की तुलना इस प्रकार है--
१ उत्कट मुमुक्षा २ जीवन्मुक्ति ३ विदेहमुक्ति १ जैन तात्त्विक धर्मसंन्यास, सयोगि-अयोगि- मुक्ति, सिद्धत्व । क्षपक श्रेणी। गुणस्थान; सर्वज्ञत्व,
- अहत्त्व । २ सांख्य-योग परवैराग्य, प्रसंख्यान, असंप्रज्ञात, धर्ममेघ । स्वरूपप्रतिष्ठचिति, . संप्रज्ञात ।
कैवल्य। ३ बौद्ध क्लेशावरणहानि, ज्ञ यायावरणहानि, निर्वाण, निराश्रव
नैरात्म्यदर्शन । सर्वज्ञत्व, अर्हत्त्व । चित्तसंतति । ४ न्याय-वैशेषिक युक्तयोगी वियुक्तयोगी अपवर्ग ५ वेदान्त निर्विकल्पक समाधि ब्रह्मसाक्षात्कार, स्वरूपलाभ,
ब्रह्मनिष्ठत्व।
मुक्ति। दार्शनिक इतिहास से जान पड़ता है कि हर एक दर्शन की अपनी-अपनी उक्त परिभाषा बहुत पुरानी है । अतएव उनसे बोधित होने वाला विचारस्त्रोत तो और भी पुराना समझना चाहिए।
[८] उपाध्यायजी ने ज्ञान सामान्य की चर्चा का उपसंहार करते हुए ज्ञाननिरूपण में बार-बार आने वाले क्षयोपशम शब्द का भाव बतलाया है। एक मात्र जैन साहित्य में पाये जाने वाले क्षयोपशम शब्द का विवरण . उन्होंने आर्हत मत के रहस्यज्ञाताओं की प्रक्रिया के अनुसार उसी की परिभाषा में किया
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org