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अहिंसा की मीमांसा निषेध किया। पर जैन परंपरा का भी अपना एक उद्देश्य है जिसकी सिद्धि के वास्ते उसके अनुयायी गृहस्थ और साधु का जीवन आवश्यक है। इसी जीवनधारण में से जैन परंपरा के सामने भी ऐसे अनेक प्रश्न समय-समय पर
आते रहे जिनका अहिंसा के आत्यंतिक सिद्धांत के साथ समन्वय करना उसे प्राप्त हो जाता था। जैन परंपरा वेद के स्थान में अपने आगमों को ही एक मात्र प्रमाण मानती आई है; और अपने उद्देश्य की सिद्धि के वास्ते स्थापित तथा प्रचारित विविध प्रकार के गृहस्थ और साधु जीवनोपयोगी कर्तव्यों का पालन भी करती आई है। अतएव अन्त में उसके वास्ते भी उन स्वीकृत कर्तव्यों में अनिवार्य रूप से हो जानेवाली हिंसा का समर्थन भी एक मात्र प्रागम की आज्ञा के पालन रूप से ही करना प्राप्त है। जैन श्राचार्य इसी दृष्टि से अपने आपवादिक हिंसा मार्ग का समर्थन करते रहे ।
प्राचार्य हरिभद्र ने चार प्रकार के वाक्यार्थ बोध को दर्शाते समय अहिंसाहिंसा के उत्सर्ग-अपवादभाव का जो सूक्ष्म विवेचन किया है वह अपने पूर्वांचार्यों की परंपराप्राप्त संपत्ति तो है ही पर उसमें उनके समय तक की विकसित मीमांसाशैली का भी कुछ न कुछ असर है। इस तरह एक तरफ से चार • वाक्यार्थबोध के बहाने उन्होंने उपदेशपद में मीमांसा की विकसित शैली का,
जैन दृष्टि के अनुसार संग्रह किया; तब दूसरी तरफ से उन्होंने बौद्ध परिभाषा को भी 'षोडशक'' में अपनाने का सर्वप्रथम प्रयत्न किया । धर्मकीर्ति के 'प्रमाणवार्तिक' के पहले से भी बौद्ध परंपरा में विचार विकास की क्रम प्राप्त तीन भूमिकाओं को दशीनेवाले श्रुतमय, चिंतामय और भावनामय ऐसे तीन शब्द बौद्ध वाङ्मय में प्रसिद्ध रहे। हम जहाँ तक जान पाए हैं कह सकते हैं कि प्राचार्य हरिभद्र ने ही उन तीन बौद्धप्रसिद्ध शब्दों को लेकर उनकी व्याख्या में वाक्यार्थबोध के प्रकारों को समाने का सर्वप्रथम प्रयत्न किया। उन्होंने घोडशक में परिभाषाएँ तो बौद्धों की लीं पर उन की व्याख्या अपनी दृष्टि के अनुसार की; और श्रुतमय को वाक्यार्थ ज्ञानरूप से, चिंतामय को महावाक्यार्थ ज्ञानरूप से और भावनामय को ऐदम्पार्थ ज्ञानरूप से घटाया। स्वामी विद्यानन्द ने उन्हीं बौद्ध परिभाषाओं का 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' में खंडन किया, जब कि हरिभद्र ने
उन परिभाषाओं को अपने ढंग से जैन वाङ्मय में अपना लिया । • उपाध्यायजी ने ज्ञानबिन्दु में हरिभद्रवर्णित चार प्रकार का वाक्यार्थबोध,
१ षोडशक १.१०। २ देखो, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ० २१ ।
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