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पूर्वगतगाथा
४१६ श्रुत की समानता होने पर भी उसके भावों के परिज्ञानगत तारतम्य का कारण जो ऊहापोहसामर्थ्य है उसे उपाध्यायजी ने श्रुतसामर्थ्य और मतिसामर्थ्य उभयरूप कहा है-फिर भी उनका विशेष झुकाव उसे श्रुतसामर्थ्य मानने की अोर स्पष्ट है। ___ आगे श्रुत के दीर्घोपयोग विषयक समर्थन में उपध्यायजी ने एक पूर्वगत गाथा का [ज्ञानबिन्दु पृ० ६. ] उल्लेख किया है, जो 'विशेषावश्यकभाष्य' [गा० ११७ ] में पाई जाती है। पूर्वगत शब्द का अर्थ है पूर्व-प्राक्तन । उस गाथा को पूर्वगाथा रूप से मानते थाने की परंपरा जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण जितनी तो पुरानी अवश्य जान पड़ती है; क्योंकि कोट्याचार्य ने भी अपनी वृत्ति में उसका पूर्वगतगाथा रूप से ही व्याख्यान किया है । पर यहाँ पर यह बात जरूर लक्ष्य खींचती है कि पूर्वगत मानी जानेवाली वह गाथा दिगम्बरीय ग्रंथों में कहीं नहीं पाई जाती और पाँच ज्ञानों का वर्णन करनेवाली 'आवश्यकनियुक्ति' में भी वह गाथा नहीं है।
हम पहले कह आए हैं कि अक्षर-अनक्षर रूप से श्रुत के दो भेद बहुत पुराने हैं और दिगम्बरीय-श्वेताम्बरीय दोनों परंपराओं में पाए जाते हैं। पर अनक्षर श्रुत की दोनों परंपरागत व्याख्या एक नहीं है। दिगम्बर परंपरा में अनक्षरश्रुत शब्द का अर्थ सबसे पहले अकलंक ने ही स्पष्ट किया है । उन्होंने स्वार्थश्रुत को अनक्षरश्रुत बतलाया है। जब कि श्वेताम्बरीय परंपरा में नियुक्ति के समय से ही अनक्षरश्रुत का दूसरा अर्थ प्रसिद्ध है । नियुक्ति में अनक्षरश्रुत रूप से उच्छ्रसित, निःश्वसित आदि ही श्रुत लिया गया है। इसी तरह अक्षरश्रुत के अर्थ में भी दोनों परंपराओं का मतभेद है। अकलंक परार्थ वचनात्मक श्रुत को ही अक्षरश्रुत कहते हैं जो कि केवल द्रव्यश्रुत रूप है । तब, उस पूर्वगत गाथा के व्याख्यान में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण त्रिविध अक्षर बतलाते हुए अक्षरश्रुत को द्रव्य-मांव रूप से दो प्रकार का बतलाते हैं । द्रव्य और भाव रूप से श्रुत के दो प्रकार मानने की जैन परंपरा तो पुरानी है और श्वेताम्बर-दिगम्बर शास्त्रों में एक सी ही है पर अक्षरश्रुत के व्याख्यान में दोनों परंपराओं का अन्तर हो गया है । एक परंपरा के अनुसार द्रव्यश्रुत ही अक्षरश्रुत है जब कि दूसरी परंपरा के अनुसार द्रव्य और भाव दोनों प्रक.र का अक्षरश्रुत है । द्रव्यश्रुत शब्द जैन वाङ्मय में पुराना है पर उसके व्यञ्जनाक्षर-संज्ञानर नाम से पाए जानेवाले दो प्रकार दिगम्बर शास्त्रों में नहीं है।
द्रव्यश्रुत और भावभुत रूप से शास्त्रज्ञान संबंधी जो विचार जैन परंपरा में पाया जाता है। और जिसका विशेष रूप से स्पष्टीकरण उपाध्यायजी
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