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केवलिसमुद्घात
३२६ शरीर तथा आहारक-अङ्गोपाङ्ग नामकर्म का उदय नहीं होता-कर्मकाण्ड गा० ३२४ । जब तक आहारक-द्विकका उदय न हो, तब तक आहारक-शरीर रचा नहीं जा सकता और उसकी रचना के सिवाय आहारकमिश्र और आहारक, ये दो योग असम्भव हैं। इससे सिद्ध है कि गोम्मटसार, मनःपर्यायज्ञान में दो आहारक योग नहीं मानता । इसी बात की पुष्टि जीवकाण्ड की ७२८ वी गाथा से भी होती है । उसका मतलब इतना ही है कि मनःपर्यायज्ञान, परिहार विशुद्धसंयम, प्रथमोपशमसम्यक्त्व और आहारक-द्विक, इन भावों में से किसी एक के प्राप्त होने पर शेष भाव प्राप्त नहीं होते।
(१५) 'केवलिसमुद्घात'
(क) पूर्वभावी क्रिया-केवलिसमुद्घात रचने के पहले एक विशेष क्रिया की जाती है, जो शुभयोग रूप है, जिसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और जिसका कार्य उदयावलिका में कर्म-दलिकों का निक्षेप करना है। इस क्रिया-विशेष को 'प्रायोजिकाकरण' कहते हैं। मोक्ष की ओर श्रावर्जित (झुके हुए) आत्मा के द्वारा किये जाने के कारण इसको 'श्रावर्जितकरण' कहते हैं। और सब केवलज्ञानियों के द्वारा अवश्य किये जाने के कारण इसको 'आवश्यककरण' भी कहते हैं । श्वेताम्बर-सहित्य में आयोजिकाकरण आदि तीनों संज्ञाएँ प्रसिद्ध हैं ।-विशे० आ०, गा० ३०५०-५१; तथा पञ्च० द्वा० १, गा० १६ की टीका ।
दिगम्बर-साहित्य में सिर्फ 'श्रावर्जितकरण' संज्ञा प्रसिद्ध है। लक्षण भी उसमें स्पष्ट है
'हट्ठा दंडस्सतोमुहुत्तमावाजदं हवे करणं । तं च समुग्घादस्स य अहिमुहभावो जिणिंदस्स ।'
-लब्धिसार, गा० ६१७ । (ख) केवलिसमुद्घात का प्रयोजन और विधान-समय--
जब वेदनीय आदि अघाति कर्म की स्थिति तथा दलिक, आयु कर्म की स्थिति तथा दलिक से अधिक हों तब उनको आपस में बराबर करने के लिए केवलिसमुद्घात करना पड़ता है । इसका विधान, अन्तर्मुहर्त-प्रमाण आयु बाकी रहने के समय होता है।
(ग) स्वामी--केवलज्ञानी ही केवलिसमुद्घात को रचते हैं ।
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