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काल
( १६ ) 'काल'
'काल' के संबन्ध में जैन। और वैदिक, दोनों दर्शनों में करीब ढाई हजार वर्ष पहले से दो पक्ष चले आते हैं। श्वेताम्बर ग्रंथों में दोनों पक्ष वर्णित हैं । दिगम्बर-ग्रंथों में एक ही पक्ष नजर आता है ।
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(१) पहला पक्ष, काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता । बह मानता है कि जीव और और जीव द्रव्य का पर्याय- प्रवाह ही 'काल' है । इस पक्ष के अनुसार जीवाजीव द्रव्य का पर्याय परिणमन ही उपचार से काल माना जाता है । इसलिए. वस्तुतः जीव और जीव को ही काल - द्रव्य समझना चाहिए । वह उनसे अलग तत्त्व नहीं है । यह पक्ष 'जीवाभिगम' आदि आगमों में है ।
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(२) दूसरा पक्ष काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानता है । वह कहता है कि जैसे जीव- पुद्गल आदि स्वतन्त्र द्रव्य हैं; वैसे ही काल भी । इसलिए इस पक्ष के अनुसार काल को जीवादि के पर्याय प्रवाहरूप न समझ कर जीवादि से भिन्न तत्त्व ही समझना चाहिए । यह पक्ष 'भगवती' आदि आगमों में है ।
आगम के बाद के ग्रंथों में, जैसे – तत्त्वार्थ सूत्र में वाचक उमास्वाति ने, द्वात्रिंशिका में श्री सिद्धसेन दिवाकर ने, विशेषावश्यक भाष्य में श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने धर्मसंग्रहणी में श्री हरिभद्रसूरि ने, योगशास्त्र में श्री हेमचन्द्रसूरि ने, द्रव्य-गुण पर्याय के रास में श्री उपाध्याय यशोविजयजी ने, लोकप्रकाश में श्री विनयविजयजी ने और नयचक्रसार तथा श्रागमसार में श्री देवचन्दजी ने श्रागम-गत उक्त दोनों पक्षों का उल्लेख किया है । दिगम्बर - संप्रदाय में सिर्फ दूसरे पक्ष का स्वीकार है, जो सबसे पहले श्री कुन्दाचार्य के ग्रंथों में मिलता है । इसके बाद पूज्यपादस्वामी, भट्टारक श्री कलङ्कदेव, विद्यानन्दस्वामी, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती और बनारसीदास आदि ने भी उस एक ही पक्ष का उल्लेख किया है ।
पहले पक्ष का तात्पर्य -
पहला
पक्ष कहता है कि समय, श्रावलिका, आदि जो व्यवहार, काल-साध्य बतलाए जाते हैं या ज्येष्ठता- कनिष्ठता आदि जो अवस्थाएँ, काल - साध्य बतलाई जाती हैं, वे सब क्रिया-विशेष [पर्याय विशेष ] के ही संकेत हैं । जैसे— जीव या जीव का जो पर्याय, अविभाज्य है, अर्थात् बुद्धि से भी जिसका दूसरा हिस्सा नहीं हो सकता, उस आखिरी अतिसूक्ष्म पर्याय को 'समय' कहते हैं । ऐसे असंख्यात पर्यायों के पुञ्ज को 'श्रावलिका' कहते हैं । अनेक श्रावलिकाओं को 'मुहूर्त' और तीस
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मुहूर्त्त, दिन-रात नवीनता - पुराणता,
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