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काल
अणु में लगातार पर्याय हुआ करते हैं। ये ही पर्याय, 'समय' कहलाते हैं। एक-एक काल-अणु के अनन्त समय-पर्याय समझने चाहिए। समय-पर्याय ही अन्य द्रव्यों के पर्यायों का निमित्तकारण है। नवीनता-पुराणता, ज्येष्ठता-कनिष्ठता आदि सब अवस्थाएँ, काल-अणु के समय-प्रवाह की बदौलत ही समझनी चाहिए। पुद्गल-परमाणु को लोक-आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक मन्दगति से जाने में जितनी देर होती है, उतनी देर में काल-अणु का एक समय-पर्याय व्यक्त होता है । अर्थात् समय-पर्याय और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक की परमाणु की मन्द गति, इन दोनों का परिमाण बराबर है। यह 'मन्तव्य दिगम्बर-ग्रंथों में है।
वस्तु-स्थिति क्या है-- निश्चय दृष्टि से देखा जाए तो काल को अलग द्रव्य मानने की कोई जरूरत नहीं है। उसे जीवाजीव के पर्यायरूप मानने से ही सब कार्य व सब व्यवहार उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए यही पक्ष, तात्त्विक है । अन्य पक्ष, व्यावहारिक व औपचारिक हैं । काल को मनुष्य-क्षेत्र प्रमाण मानने का पक्ष स्थूल लोक-व्यवहार पर निर्भर है। और उसे अणुरूप मानने का पक्ष, औपचारिक है, ऐसा स्वीकार न किया जाए तो यह प्रश्न होता है कि जब मनुष्य-क्षेत्र से बाहर भी नवत्व पुराणत्व आदि भाव होते हैं, तब फिर काल को मनुष्य-क्षेत्र में ही कैसे माना जा सकता है ? दूसरे यह मानने में क्या युक्ति है कि काल, ज्योतिष-चक्र के संचार की अपेक्षा रखता है ? यदि अपेक्षा रखता भी हो तो क्या वह लोकव्यापी होकर ज्योतिषचक्र के संचारक की मदद नहीं ले सकता ? इसलिए उसको मनुष्यक्षेत्र प्रमाण मानने की कल्पना, स्थूल लोक-व्यवहार पर निर्भर है-काल को. अणुरूप मानने की कल्पना औपचारिक है। प्रत्येक पुद्गल-परमाणु को ही उपचार से कालाणु समझना चाहिए और कालाणु के अप्रदेशत्व के कथन की सङ्गति इसी तरह कर लेनी चाहिए ।
ऐसा न मानकर कालाणु को स्वतन्त्र मानने में प्रश्न यह होता है कि यदि काल स्वतन्त्र द्रव्य माना जाता है तो फिर वह धर्म-अस्तिकाय की तरह स्कन्धरूप क्यों नहीं माना जाता है ? इसके सिवाय एक यह भी प्रश्न है कि जीव-अजीव के पर्याय में तो निमित्तकारण समय-पर्याय है । पर समय पर्याय में निमित्तकारण क्या है ? यदि वह स्वभाविक होने से अन्य निमित्त की अपेक्षा नहीं रखता तो फिर जीव-अजीव के पर्याय भी स्वाभाविक क्यों न माने जाएँ ? यदि समय-पर्याय के वास्ते अन्य निमित्त की कल्पना की जाए तो अनवस्था पाती है। इसलिए अणुपक्ष को औपचारिक ही मानना ठीक है।
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