________________
३८०
जैन धर्म और दर्शन तब उसकी अनेक ऐतिहासिक भूमिकाएँ हमें जैन साहित्य में देखने को मिलती हैं।
ज्ञानविकास की किस भूमिका का आश्रय लेकर प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु ग्रन्थ को उपाध्यायजी ने रचा है इसे ठीक-ठीक समझने के लिए हम यहाँ ज्ञानविकास की कुछ भूमिकाओं का संक्षेप में चित्रण करते हैं। ऐसी ज्ञातव्य भूमिकाएँ नीचे लिखे अनुसार सात कही जा सकती हैं-(१) कर्मशास्त्रीय तथा आगमिक, (२) नियुक्तिगत, (३) अनुयोगगत, (४)तत्त्वार्थगत, (५) सिद्धसेनीय, (६) जिनभद्रीय और (७) अकलंकीय ।।
(१) कर्मशास्त्रीय तथा आगमिक भूमिका वह है जिसमें पञ्चविध ज्ञान के मति या अभिनिबोध आदि पाँच नाम मिलते हैं और इन्हीं पाँच नामों के आसपास स्वदर्शनाभ्यासजनित थोड़ा बहुत गहरा तथा विस्तृत भेद-प्रभेदों का विचार भी पाया जाता है ।
(२) दूसरी भूमिका वह है जो प्राचीन नियुक्ति भाग में, करीब विक्रम की दूसरी शताब्दी तक में, सिद्ध हुई जान पड़ती है।' इसमें दर्शनान्तर के अभ्यास का थोड़ा सा असर अवश्य जान पड़ता है। क्योंकि प्राचीन नियुक्ति में मतिज्ञान के वास्ते मति और अभिनिबोध शब्द के उपरान्त संज्ञा, प्रज्ञा, स्मृति आदि अनेक पर्याय २ शब्दों की जो वृद्धि देखी जाती है और पञ्चविध ज्ञान का जो प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से विभाग देखा जाता है वह दर्शनान्तरीय अभ्यास का ही सूचक है।
१ नियुक्तिसाहित्य को देखने से पता चलता है कि जितना भी नियुक्ति के नाम से साहित्य उपलब्ध होता है वह सब न तो एक ही प्राचार्य की कृति है और न वह एक ही शताब्दी में बना है। फिर भी प्रस्तुत ज्ञान की चर्चा करनेवाला आवश्यक नियुक्ति का भाग प्रथम भद्रबाहु कृत मानने में कोई आपत्ति नहीं है । अतएव उसको यहाँ विक्रम की दूसरी शताब्दी तक में सिद्ध हुअा कहा गया है ।
२ आवश्यकनियुक्ति, गा० १२ । ।
३ बृहत्कल्पभाष्यान्तर्गत भद्रबाहुकृत नियुक्ति-गा० ३, २४, २५ । यद्यपि टीकाकार ने इन गाथाओं को, भद्रबाहवीय नियुक्तिगत होने की सूचना नहीं दी है, फिर भी पूर्वापर के संदर्भ को देखने से, इन गाथाओं को नियुक्तिगत मानने में कोई आपत्ति नहीं है । टीकाकार ने नियुक्ति और भाष्य का विवेक सर्वत्र नहीं दिखाया है, यह बात तो बृहत्कल्प के किसी पाठक को तुरन्त ही ध्यान में आ सकती है। और खास बात यह है कि न्यायावतार टीका की टिप्पणी के रचयिता देवभद्र, २५ वीं गाथा कि जिसमें स्पष्टतः प्रत्यक्ष और परोक्ष का लक्षण किया गया है, उसको भगवान् भद्रबाहु की होने का स्पष्टतया सूचन करते हैं-न्यायावतार, पृ० १५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org