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जैनसाहित्य के युग
३६३ विस्तार के प्रभाव के सबब से जैन परंपरा की साहित्य की अंतर्मुख या बहिर्मुख प्रवृत्ति में कितना ही युगतिर जैसा स्वरूप भेद या परिवर्तन क्यों न हुश्रा पर जैसा हमने पहले सूचित किया है वैसा ही अथ से इति तक देखने पर भी हमें न जैन दृष्टि में परिवर्तन मालूम होता है और न उसके बाह्य-आभ्यंतर तात्त्विक मंतव्यों में।
१-आगम युग . इस युग में भाषा की दृष्टि से प्राकृत या लोक भाषाओं को ही प्रतिष्ठा रही जिससे संस्कृत भाषा और उसके वाङ्मय के परिशीलन की अोर आत्यंतिक उपेक्षा होना सहज था जैसा कि बौद्ध परंपरा में भी था । इस युग का प्रमेय निरूपण आचारलक्षी होने के कारण उसमें मुख्यतया स्वमत प्रदर्शन का ही भाव है। राजसभाओं और इतर वादगोष्ठियों में विजय भावना से प्रेरित होकर शास्त्रार्थ करने की तथा खण्डनप्रधान ग्रंथनिर्माण की प्रवृत्ति का भी इस युग में अभाव सा है । इस युग का प्रधान लक्षण जड़-चेतन के भेद-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन तथा अहिंसा, संयम, तप आदि प्राचारों का निरूपण करना है।
आगमयुग और संस्कृत युग के साहित्य का पारस्परिक अंतर संक्षेप में कहा जा सकता है कि पहिले युग का जैन साहित्य बौद्ध साहित्य की तरह अपने मूल उद्देश्य के अनुसार लोकभोग्य ही रहा है । जब कि संस्कृत भाषा और उसमें निबद्ध तर्क साहित्य के अध्ययन की व्यापक प्रवृत्ति के बाद उसका निरूपण सक्षम
और विशद होता गया है सही पर साथ ही साथ वह इतना जटिल भी होता गया कि अंत में संस्कृत कालीन साहित्य लोकभोग्यता के मूल उद्देश्य से च्युत होकर केवल विद्वद्भोग्य ही बनता गया ।
२-संस्कृत प्रवेश या अनेकान्तस्थापन युग संभवतः वाचक उमास्वाति या तत्सदृश अन्य आचार्यों के द्वारा जैन वाङ्मय में संस्कृत भाषा का प्रवेश होते ही दूसरे युग का परिवर्तनकारी लक्षण शुरू होता है जो बौद्ध परंपरा में तो अनेक शताब्दी पहिले ही शुरू हो गया था। इस युग में संस्कृत भाषा के अभ्यास की तथा उसमे ग्रंथप्रणयन की प्रतिष्ठा स्थिर होती है। इसमें राजसमा प्रवेश, परवादियों के साथ वादगोष्ठी
और परमत खंडन की प्रधान दृष्टि से स्वमतस्थापक ग्रंथों की रचना-ये प्रधानतया नजर आते हैं। इस युग में सिद्धसेन जैसे एक-आध श्राचार्य ने जैन-न्याय की व्यवस्था दर्शाने वाला एक-आध ग्रंथ भले ही रचा हो पर अब तक इस युग में
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