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जैन धर्म और दर्शन प्रमाण है कि समान साधन और अवसर मिलने पर स्त्री भी पुरुष-जितनी योग्यता प्रास कर सकती है । श्वेताम्बर-आचार्यों ने स्त्री को पुरुष के बराबर योग्य मानकर उसे कैवल्य व मोक्ष की अर्थात् शारीरिक और आध्यात्मिक पूर्ण विकास की अधिकारिणी सिद्ध किया है । इसके लिए देखिए, प्रज्ञापना-सूत्र० ७, पृ० १८ नन्दी-सूत्र० २१, पृ० १३० ।
इस विषय में मत-भेद रखनेवाले दिगम्बर-श्राचार्यों के विषय में बहुतकुछ लिखा गया है। इसके लिए देखिए, नन्दी-टीका, पृ० १३१-१३३; प्रज्ञापना-टीका, पृ० २०-२२; शास्त्रवार्तासमुच्चय-टीका, पृ० ४२५-४३० ।
आलङ्कारिक पण्डित राजशेखर ने मध्यस्थभावपूर्वक स्त्री जाति को पुरुषजाति के तुल्य बतलाया है
'पुरुषवत् योषितोऽपि कवीभवेयुः । संस्कारो ह्यात्मनि समवैति, न स्त्रैणं पौरुषं वा विभागमपेक्षते। श्रयन्ते दृश्यन्ते च राजपुत्र्यो महामात्यदुहितरो गणिकाः कौतुकिभार्याश्च शास्त्रप्रतिबुद्धाः कवयश्च ।'
-काव्यमीमांसा-अध्याय १० । [विरोध-] स्त्री को दृष्टिवाद के अध्ययन का जो निषेध किया है, इसमें दो तरह से विरोध अाता है—(१) तर्क-दृष्टि से और (२) शास्त्रोक्त मर्यादा से ।
(१) एक ओर स्त्री को केवलज्ञान व मोक्ष तक की अधिकारिणी मानना और दूसरी ओर उसे दृष्टिवाद के अध्ययन के लिए-श्रुतज्ञान-विशेष के लिएअयोग्य बतलाना, ऐसा विरुद्ध जान पड़ता है, जैसे किसी को रत्न सौंपकर कहना कि तुम कौड़ी की रक्षा नहीं कर सकते।
(२) दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध करने से शास्त्र-कथित कार्य-कारणभाव की मर्यादा भी बाधित हो जाती है। जैसे—शुक्लध्यान के पहले दो पाद प्राप्त किये बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता; 'पूर्व' ज्ञान के बिना शुक्लध्यान के प्रथम दो पाद प्राप्त नहीं होते और 'पूर्व', दृष्टिवाद का एक हिस्सा है। यह मींदा शास्त्र में निर्विवाद स्वीकृत है
'शुक्ल चाद्ये पूर्वविदः।' ।
--तत्त्वार्थ-अ० ६, सू०३६ । इस कारण दृष्टिवाद के अध्ययन की अनधिकारिणी स्त्री को केवलज्ञान की अधिकारिणी मान लेना स्पष्ट विरुद्ध जान पड़ता है। .
दृष्टिवाद के अनधिकार के कारणों के विषय में दो पक्ष हैं
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