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जैन धर्म और दर्शन
अलग हैं, इसी प्रकार अवधि - उपयोगवाले अज्ञानी में भी विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, ये दोनों वस्तुतः भिन्न हैं सही, तथापि विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन इन दोनों के पारस्परिक भेद की विवक्षामात्र है । भेद विवक्षित न रखने का सब दोनों का सादृश्यमात्र है । अर्थात् जैसे विभङ्गज्ञान विषय का यथार्थ निश्चय नहीं कर सकता, वैसे ही अवधिदर्शन सामान्यरूप होने के कारण विषय का निश्चय नहीं कर सकता ।
इस अभेद-विवक्षा के कारण पहले मत के अनुसार चौथे आदि नौ गुणस्थानों में और दूसरे मत के अनुसार तीसरे आदि दस गुणस्थानों में अवधिदर्शन समझना चाहिए ।
(ख) सैद्धान्तिक विद्वान् विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, दोनों के भेद की विवक्षा करते हैं, अभेद की नहीं । इसी कारण वे विभङ्गज्ञानी में अवधिदर्शन मानते हैं । उनके मत से केवल पहले गुणस्थान में विभङ्गज्ञान का संभव है, दूसरे आदि में नहीं । इसलिए वे दूसरे आदि ग्यारह गुणस्थानों में अवधिज्ञान के साथ और पहले गुणस्थान में विभङ्गज्ञान के साथ अवधिदर्शन का साहचर्य मानकर पहले बारह गुणस्थानों में अवधिदर्शन मानते हैं । अवधिज्ञानी के और विभङ्गज्ञानी के दर्शन में निराकारता अंश समान ही है । इसलिए विभङ्गज्ञानी के दर्शन की 'विभङ्गदर्शन' ऐसी अलग संज्ञा न रखकर 'अवधिदर्शन' ही संज्ञा रखी है । सारांश, कार्मग्रन्थिक पक्ष, की विवक्षा नहीं करता और
विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, इन दोनों के भेद सैद्धान्तिक पक्ष करता है ।
-लोक प्रकाश सर्ग ३, श्लोक १०५७ से आगे ।
इस मतभेद का उल्लेख विशेषणवती ग्रन्थ में श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने किया है, जिसकी सूचना प्रज्ञापना- पद १८, वृत्ति (कलकत्ता) पृ० ५६६ पर है ।
( १२ ) ' आहारक' - केवलज्ञानी के आहार पर विचार
तेरहवें गुणस्थान के समय आहारकत्व का अङ्गीकार चौथे कर्मग्रन्थ प० ८६ तथा दिगम्बरीय ग्रन्थों में है । देखो - तत्त्वार्थ- ० १ सू० ८ को सर्वार्थसिद्धि'आहारानुवादेन श्राहारकेषु मिथ्यादृष्ट्यादीनि सयोग केवल्यन्तानि ' इसी तरह गोम्मटसार - जीवकाण्ड की ६६५ और ६६७ वीं गाथा भी इसके लिए देखने योग्य है ।
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