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दृष्टिवाद
રૂર (क) पहला पक्ष, श्री जिनभ्रद्रगणि क्षमाश्रमण आदि का है। इस पक्ष में स्त्री में तुच्छत्व, अभिमान, इन्द्रिय-चाञ्चल्य, मति-मान्य आदि मानसिक दोष दिखाकर उसको दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध कया है । इसके लिए देखिए, विशे०, भा०, ५५२वीं गाथा ।
(ख) दूसरा पक्ष, श्री हरिभद्रसूरि आदि का है। इस पक्ष में अशुद्धिरूप शारीरिक-दोष दिखाकर उसका निषेध किया है । यथा. 'कथं द्वादशाङ्गप्रतिषेधः ? तथाविधविग्रहे ततो दोषात् ।'
-ललितविस्तरा, पृ० २११ । नियदृष्टि से विरोध का परिहार-] दृष्टिवाद के अनधिकार से स्त्री को केवलज्ञान के पाने में जो कार्य-कारण-भाव का विरोध दीखता है, वह वस्तुतः विरोध नहीं है; क्योंकि शास्त्र, स्त्री में दृष्टिवाद के अर्थ-ज्ञान की योग्यता मानता है; निषेध सिर्फ शाब्दिक अध्ययन का है।
'श्रेणिपरिणतौ तु कालगर्भवद्भावतो भावोऽविरुद्ध एव ।' ___-ललितविस्तरा तथा इसकी श्री मुनिचन्द्रसूरि-कृत पञ्जिका, पृ० १११ ।
तप, भावना आदि से 'जब ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम तीव्र हो जाता है, तब स्त्री शाब्दिक अध्ययन के सिवाय ही दृष्टिवाद का सम्पूर्ण अर्थ-ज्ञान कर लेती है और शुक्लध्यान के दो पाद पाकर केवलज्ञान को भी पा लेती है
'यदि च शास्त्रयोगागम्यसामर्थ्ययोगावसेयभावेष्वतिसूक्ष्मेष्वपि तेषां विशिष्ट क्षयोपशमप्रभवप्रभावयोगात् पूर्वधरस्येव बोधातिरेकसद्भावादाद्यशलध्यानद्वयप्राप्तः केवलावाप्तिक्रमेण मुक्तिप्राप्तिरिति न दोषः, अध्ययनमन्तरेणापि भावतः पूर्ववित्त्वसंभवात् , इति विभाव्यते, तदा निर्ग्रन्थीनामप्येवं द्वितयसंभवे दोषाभावात् ।' ।
-शास्त्रवाती०, पृ० ४२६ । __ यह नियम नहीं है कि गुरु-मुख से शाब्दिक-अध्ययन बिना किये अर्थ-ज्ञान न हो । अनेक लोग ऐसे देखे जाते हैं, जो किसी से बिना पढ़े ही मनन-चिन्तनद्वारा अपने अभीष्ट विषय का गहरा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।
अब रहा शाब्दिक-अध्ययन का निषेध, सो इस पर अनेक तर्क-वितर्क उत्पन्न होते है । यथा—जिसमें अर्थ-ज्ञान की योग्यना मान ली जाए, उसको सिर्फ शाब्दिक-अध्ययन के लिए अयोग्य बतलाना क्या संगत है ? शब्द, अर्थ-ज्ञान का साधन मात्र है। तप, भावना आदि अन्य साधनों से जो अर्थ-ज्ञान संपादन कर सकता है, वह उस ज्ञान को शब्द द्वारा संपादन करने के लिए अयोग्य है, यह
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