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योगमार्गणा
३११ विशेषावश्यक-भाष्य, गा० ३५६-३६४ तथा लोकप्रकाश-सर्ग ३,लो०१३५४१३५५ के बीच का गद्य देखना चाहिए । द्रव्यमन, द्रव्यवचन और शरीर का स्वरूप
(क ) जो पुद्गल मन बनने के योग्य हैं, जिनको शास्त्र में 'मनोवर्गणा' कहते हैं, वे जब मनरूप में परिणत हो जाते हैं-विचार करने में सहायक हो सकें, ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं तब उन्हें 'मन' कहते हैं । शरीर में द्रव्यमन के रहने का कोई खास स्थान तथा उसका नियत आकार श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में नहीं है । श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के अनुसार द्रव्यमन को शरीर-व्यापी और शरीराकार समझना चाहिए । दिगम्बर-सम्प्रदाय में उसका स्थान हृदय तथा आकार कमल के समान माना है। _ (ख) वचनरूप में परिणत एक प्रकार के पुद्गल, जिन्हें भाषावर्गणा कहते हैं, वे ही 'वचन' कहलाते हैं।
(ग) जिससे चलना-फिरना, खाना-पीना आदि हो सकता है, जो सुख-दुःख भोगने का स्थान है और जो औदारिक, वैक्रिय आदि वर्गणाओं से बनता है, वह 'शरीर' कहलाता है।
(८) 'सम्यक्त्व
इसका स्वरूप, विशेष प्रकार से जानने के लिए निम्नलिखित कुछ बातों का विचार करना बहुत उपयोगी है
(१) सम्यक्त्व सहेतुक है या निर्हेतुक ? (२) क्षायोपशमिक आदि भेदों का आधार क्या है ।
(३) औपशमिक और क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व का आपस में अन्तर तथा क्षायिकसम्यक्त्व की विशेषता ।
(४) शङ्का-समाधान, विपाकोदय और प्रदेशोदय का स्वरूप । (५) क्षयोपशम और उपशम की व्याख्या तथा खुलासावार विचार।
(१) सम्यक्त्व-परिणाम सहेतुक है या निर्हेतुक ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि उसको निहतुक नहीं मान सकते; क्योंकि जो वस्तु निर्हेतुक हो, वह सब काल में, सब जगह, एक-सी होनी चाहिए अथवा उसका अभाव होना चाहिए। सम्यक्त्वपरिणाम, न तो सब में समान है और न उसका अभाव है । इसीलिए उसे सहेतुक ही मानना चाहिए। सहेतुक मान लेने पर यह प्रश्न होता है कि उसका
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