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जैन धर्म और दर्शन अहंत्व करना, बाह्य दृष्टि है। इस अभेद-भ्रम को बहिरात्मभाव सिद्ध करके उसे छोड़ने की शिक्षा, कर्म-शास्त्र देता है । जिनके संस्कार केवल बहिरात्मभावमय हो गए हैं उन्हें कर्म-शास्त्र का उपदेश भले ही रुचिकर न हो, परन्तु इससे उसकी सच्चाई में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ सकता। __ शरीर और आत्मा के अभेद भ्रम को दूर करा कर, उस के भेद-ज्ञान को (विवेक-ख्याति को ) कर्म-शास्त्र प्रकयता है। इसी समय से अन्तर्दृष्टि खुलती है। अन्तदृष्टि के द्वारा अपने में वर्तमान परमात्म-भाव देखा जाता है । परमात्मभाव को देखकर उसे पूर्णतया अनुभव में लाना, यह जीव का शिव (ब्रह्म ) होना है। इसी ब्रह्म-भाव को व्यक्त कराने का काम कुछ और ढंग से ही कर्मशास्त्र ने अपने पर ले रखा है। क्योंकि वह अभेद-भ्रम से भेद ज्ञान की तरफ झुकाकर, फिर स्वाभाविक अभेदध्यान की उच्च भमिका की ओर आत्मा को खींचता है । बस उसका कर्तव्य-क्षेत्र उतना ही है । साथ ही योग-शास्त्र के मुख्य प्रतिपाद्य अंश का वर्णन भी उसमें मिल जाता है। इसलिए यह स्पष्ट है कि कर्मशास्त्र, अनेक प्रकार के आध्यात्मिक शास्त्रीय विचारों की खान है । वही उसका महत्त्व है । बहुत लोगों को प्रकृत्तियों की गिनती, संख्या की बहुलता
आदि से उस पर रुचि नहीं होती, परन्तु इसमें कर्मशास्त्र का क्या दोष ? गणित, . पदार्थविज्ञान आदि गूढ़ व रस-पूर्ण विषयों पर स्थूलदर्शी लोगों की दृष्टि नहीं जमती और उन्हें रस नहीं आता, इसमें उन विषयों का क्या दोष ? दोष है समझने वालों की बुद्धि का। किसी भी विषय के अभ्यासी को उस विषय में रस तभी आता है जब कि वह उसमें तल तक उतर जाए।
विषय-प्रवेश कर्म-शास्त्र जानने की चाह रखनेवालों को आवश्यक है कि वे 'कर्म' शब्द का अर्थ, भिन्न-भिन्न शास्त्रों में प्रयोग किये गए उसके पर्याय शब्द, कर्म का स्वरूप, आदि निम्न विषयों से परिचित हो जाएँ तथा श्रात्म-तत्त्व स्वतन्त्र है यह भी जान लें। १-कम शब्द के अर्थ
'कर्म' शब्द लोक-व्यवहार और शास्त्र दोनों में प्रसिद्ध है । उसके अनेक अर्थ होते हैं । साधारण लोग अपने व्यवहार में काम, धंधे या व्यवसाय के मतलब से 'कर्म' शब्द का प्रयोग करते हैं। शास्त्र में उसकी एक गति नहीं है। खाना, पीना, चलना, काँपना आदि किसी भी हल-चल के लिए चाहे वह जीव की हो या जड़ की-कर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है।
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