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जैन धर्म और दर्शन आदि कार्यों में प्रवृत्त होता है, तो भी उसकी वृत्ति तप्तलोहपदन्यासवत् अर्थात् गरम लोहे पर रखे जानेवाले पैर के समान सकम्प या पाप-भीरु होती है। बौद्धशास्त्र में भी बोधिसत्त्व का वैसा ही स्वरूप मानकर उसे कायपाती अर्थात् शरीरमात्र से ( चित्त से नहीं) सांसारिक प्रवृत्ति में पड़नेवाला कहा है । वह चित्तपाती नहीं होता। ई० १४२२]
[चौथे कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना
१. 'एवं च यत्परैरुक्तं बोधिसत्त्वस्य लक्षणम् । विचार्यमा सन्नील्या, तदप्यत्रोपपद्यते ॥१०॥ तप्तलोहपदन्यासतुल्या वृत्तिः क्वचिद्यदि । इत्युक्तेः कायपास्येव, चित्तपाती न स स्मृतः ॥११॥'
-सम्यग्दृष्टिद्वात्रिंशिका ।
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