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पंचेन्द्रिय
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और (२) श्राभ्यन्तर, ये दो भेद हैं । (१) इन्द्रिय के बाह्य श्राकार को 'बाह्यनिवृत्ति' कहते हैं और (२) भीतरी आकार को 'आभ्यन्तरनिर्वृत्ति' । बाह्य भाग तलवार के समान है और अभ्यन्तर भाग तलवार की तेज धार के समान, जो अत्यन्त स्वच्छ परमाणुओं का बना हुआ होता है । आभ्यान्तरनिवृत्ति का यह पुद्गलमय स्वरूप प्रज्ञापनासूत्र -इन्द्रियपद की टीक पृ० २६४ के अनुसार है । चाराङ्गवृत्ति पृ० १०४ में उसका स्वरूप चेतनामय बतलाया है ।
कार के संबन्ध में यह बात जाननी चाहिए कि त्वचा की प्राकृति अनेक प्रकार की होती है, पर उसके बाह्य और ग्राभ्यन्तर आकार में जुदाई नहीं है । किसी प्राणी की त्वचा का जैसा बाह्य आकार होता है, वैसा ही ग्राम्यन्तर श्राकार होता है । परन्तु अन्य इन्द्रियों के विषय में ऐसा नहीं है - त्वचा को छोड़ अन्य सब इन्द्रियों के आभ्यन्तर आकार, बाह्य आकार से नहीं मिलते। सब जाति के प्राणियों की सजातीय इन्द्रियों के आभ्यन्तर आकार, एक तरह के माने हुए हैं । जैसेकान का आभ्यन्तर आकार, कदम्ब - पुष्प- जैसा, आँख के मसूर के दाना- जैसा, नाक का अतिमुक्तक के फूल जैसा और जीमका कुरा जैसा है । किन्तु बाह्य आकार, सब जाति में भिन्न-भिन्न देखे जाते हैं । उदाहरणार्थ: - मनुष्य हाथी, घोड़ा, बैल, बिल्ली, चूहा आदि के कान, आँख, नाक, जीभ को देखिए ।
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(ख) आभ्यन्तरनिवृत्ति की विषय ग्रहण- शक्ति को 'उपकरणेन्द्रिय' कहते हैं । (२) भावेन्द्रिय दो प्रकार की हैं - ( १ ) लब्धिरूप और (२) उपयोगरूप |
( १ ) मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम को — चेतन-शक्ति की योग्यता- विशेष को - 'लब्धिरूप भावेन्द्रिय' कहते हैं । ( २ ) इस लब्धिरूप भावेन्द्रिय के अनुसार आत्मा की विषय ग्रहण में जो प्रवृत्ति होती है, उसे 'उपयोगरूप भावेन्द्रिय' कहते हैं ।
इस विषय को विस्तारपूर्वक जानने के लिए प्रज्ञापना-पद १५, पृ० २६३; तत्वार्थ - अध्याय २, सू० १७ - १८ तथा वृत्ति; विशेषाव०, गा० २६६३ - ३००३ तथा लोकप्रकाश-सर्ग ३; श्लोक ४६४ से आगे देखना चाहिए ।
( ३ ) 'संज्ञा '
संज्ञा का मतलब आभोग ( मानसिक क्रिया-विशेष ) से है । इसके (क) ज्ञान और (ख) अनुभव, ये दो भेद हैं ।
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