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जैन धर्म और दर्शन तत्पर और सम्यक्त्व-प्राप्ति के अभिमुख होता है, उसको पूर्वसेवा तात्त्विकरूप से होती है और सकृद्वन्धक, द्विर्बन्धक आदि को पूर्वसेवा अतात्त्विक होती है। अध्यात्म और भावना अपुनर्बन्धक तथा सम्यग्दृष्टि को व्यवहार-नय से. तात्त्विक और देश-विरति तथा सर्व-विरति को निश्चय नय से तात्त्विक होते हैं । अप्रमत्त, सर्वविरति आदि गुणस्थानों में ध्यान तथा समता उत्तरोत्तर तात्त्विकरूप से होते हैं । वृत्तिसंक्षय तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में होता है । सम्प्राज्ञतयोग अध्यात्म से लेकर ध्यान पर्यन्त के चारों भेदस्वरूप है और असम्प्रज्ञातयोग वृत्तिसंक्षयरूप है । इसलिए चौथे से बारहवें गुणस्थान तक में सम्प्रज्ञातयोग और तेरहवें चौदहवें गुणस्थान में असम्प्रज्ञातयोग समझना चाहिए । पूर्वसेवा आदि शब्दों की व्याख्या
१. गुरु, देव आदि पूज्यवर्ग का पूजन, सदाचार, तप और मुक्ति के प्रति अद्वेष, यह 'पूर्वसेवा' कहलाती है। २. उचित प्रवृत्तिरूप अणुव्रत-महाव्रत युक्त होकर मैत्री अादि भावनापूर्वक जो शास्त्रानुसार तत्त्व-चिंतन करना, वह
- १. 'शुक्लपक्षेन्दुवत्प्रायो वर्धमानगुणः स्मृतः ।
भवाभिनन्ददोषाणामपुनर्बन्धको व्यये ॥१॥ अस्यैव पूर्वसेवोक्ता, मुख्याऽन्यस्योपचारतः । अस्यावस्थान्तरं मार्गपतिताभिमुखौ पुनः ॥२॥
. -अपुनर्बन्धकद्वात्रिंशिका । 'अपुनर्बन्धकस्यायं व्यवहारेण तात्त्विकः अध्यात्मभावनारूपोनिश्चयेनोत्तरस्य तु ॥१४॥ सकृदावर्तनादीनामतात्त्विक उदाहृतः। प्रत्यपायफलप्रायस्तथा वेषादिमात्रतः ।।१५।। शुद्धयपेक्षा यथायोगं चारित्रवत एव च । हन्त ध्यानादिको योगस्तात्त्विकः प्रविजृम्भते ।।१६।।'
-योगविवेकद्वात्रिंशिका। २. 'संप्रज्ञातोऽवतरति, ध्यानभेदेऽत्र तत्त्वतः।
तात्त्विकी च समापत्तिात्मनो भाव्यतां विना ||१५॥ 'असम्प्रज्ञातनामा तु, संमतो वृत्तिसंशयः ।। सर्वतोऽस्मादकरण नियमः पापगोचरः ।।२१॥'
-योगावताराशिका ।
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