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जैन धर्म और दर्शन वह परम्परा से भी मोक्ष के अनुकूल न होने के सबब से योग नहीं कहा जाता। पातञ्जलदर्शन में भी अनादि सांसारिक काल के निवृत्ताधिकार प्रकृति और
और अनिवृत्ताधिकार प्रकृति इस प्रकार दो भेद बतलाए हैं, जो जैन शास्त्र के चरम और अचरम-पुद्गलपरावर्त के समानार्थक ' हैं । योग के भेद और उनका आधार
जैनशास्त्र २ में (१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, (४) समता और (५) वृत्तिसंक्षय, ऐसे पाँच भेद योग के किये हैं। पातञ्जलदर्शन में योग के (१) सम्प्रज्ञात और (२) असम्प्रज्ञात, ऐसे दो भेद ३ हैं । जो मोक्ष का साक्षात्अव्यवहित कारण हो अर्थात् जिसके प्राप्त होने के बाद तुरंत ही मोक्ष हो, वही यथार्थ में योग कहा जा सकता है। ऐसा योग जैनशास्त्र के संकेतानुसार वृत्तिसंक्षय और पातञ्जलदर्शन के संकेतानुसार असम्प्रज्ञात ही है। अतएव यह प्रश्न होता है कि योग के जो इतने भेद किये जाते हैं, उनका आधार क्या है ? इसका उत्तर यह है कि अलबत्ता वृत्तिसंक्षय किंवा असम्प्रज्ञात ही मोक्ष का साक्षात् कारण होने से वास्तव में योग है । तथापि वह योग किसी विकासगामी आत्मा को पहले ही पहल प्राप्त नहीं होता, किंतु इसके पहले विकास-क्रम के अनुसार ऐसे अनेक प्रांतरिक धर्म-व्यापर करने पड़ते हैं, जो उत्तरोत्तर विकास को बढ़ानेवाले
और अंत में उस वास्तविक योग तक पहुँचानेवाले होते हैं । वे सब धर्म-व्यापार योग के कारण होने से अर्थात् वृत्तिसंक्षय या असम्प्रज्ञात योग के साक्षात् किंवा परम्परा से हेतु होने से योग कहे जाते हैं। सारांश यह है कि योग के भेदों का श्राधार विकास का क्रम है। यदि विकास क्रमिक न होकर एक ही बार पूर्णतया प्राप्त हो जाता तो योग के भेद नहीं किये जाते । अतएव वृत्तिसंक्षय जो मोक्ष का साक्षात् कारण है, उसको प्रधान योग समझना चाहिए और उसके पहले के जो अनेक धर्म-व्यापार योगकोटि में गिने जाते हैं, वे प्रधान योग के कारण होने से योग कहे जाते हैं । इन सब व्यापारों की समष्टि को पातञ्जलदर्शन में सम्प्रज्ञात
१ योजनाद्योग इत्युक्तो मोक्षेण मुनिसतमैः । स निवृत्ताधिकारायां प्रकृतौ लेशतो ध्रुवः ॥१४॥
-अपुनर्बन्धद्वात्रिंशिका । २ 'अध्यात्म भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः। योगः पञ्चविधः प्रोक्तो, योगमार्गविशारदैः॥१॥
-योगभेदद्वात्रिंशिका । ३ देखिए, पाद १, सूत्र १७ और १८ ।
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