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गुणस्थान का विशेष स्वरूप
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पहली अवस्था में आत्मा का वास्तविक-विशुद्ध रूप अत्यन्त आच्छन्न रहता है, जिसके कारण आत्मा मिथ्याध्यासवाला होकर पौद्गलिक विलासों को ही सर्वस्व मान लेता है और उन्हीं की प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण शक्ति का व्यय करता है ।
दूसरो अवस्था में श्रात्मा का वास्तविक स्वरूप पूर्णतया तो प्रकट नहीं होता, पर उसके ऊपर का आवरण गाढ़ न होकर शिथिल, शिथिलतर, शिथिलतम बन जाता है, जिसके कारण उसकी दृष्टि पौद्गलिक विलासों की ओर से हटकर शुद्ध स्वरूप की ओर लग जाती है। इसी से उसकी दृष्टि में शरीर आदि की जीर्णता व नवीनता अपनी जीर्णता व नवीनता नहीं है। यह दूसरी अवस्था ही तीसरी अवस्था का दृढ़ सोपान है।
तीसरी अवस्था में आत्मा का वास्तविक स्वरूप प्रकट हो जाता है अर्थात् उसके ऊपर के घने आवरण बिलकुल विलीन हो जाते हैं । ___ पहला, दूसरा और तीसरा गुणस्थान बहिरात्म-अवस्था का चित्रण है। चौथे से बारहवे तक के गुणस्थान अन्तरात्म-अवस्था का दिग्दर्शन है और तेरहवा, चौदहवाँ गुणस्थान परमात्म-अवस्था का वर्णन ' है। __आत्मा का स्वभाव ज्ञानमय है, इसलिए वह चाहे किसी गुणस्थान में क्यों न हो, पर ध्यान से कदापि मुक्त नहीं रहता। ध्यान के सामान्य रीति से (१) शुभ और (२) अशुभ, ऐसे दो विभाग और विशेष रीति से (१)आर्त, . (२) रौद्र, ( ३ ) धर्म और (४) शुक्ल, ऐसे चार विभाग शास्त्र में किये
१ 'अन्ये तु मिथ्यादर्शनादिभावपरिणतो बाह्यात्मा, सम्यग्दर्शनादिपरिणतस्त्वन्तरात्मा, केवलज्ञानादिपरिणतस्तु परमात्मा। तत्राद्यगुणस्थानत्रये बाह्यात्मा, ततः । परं क्षीणमोहगुणस्थानं यावदन्तरात्मा, ततः परन्तु परमात्मेति । तथा व्यक्त्या बाह्यात्मा, शक्त्या परमात्मान्तरात्मा च । व्यक्त्यान्तरात्मा तु शक्त्या परमात्मा अनुभूतपूर्वनयेन च बाह्यात्मा; व्यक्त्या परमात्मा अनुभूतपूर्वनयेनैव बाह्यात्मान्तरात्मा च ।' -अध्यात्ममतपरीक्षा, गाथा १२५ ।
'बाह्यात्मा चान्तरात्मा च, परमात्मेति च त्रयः । कायाधिष्ठायकध्येयाः, प्रसिद्धा योगवाङ्मये ॥ १७ ॥ अन्ये भिथ्यात्वसम्यक्त्वकेवलज्ञानभागिनः।। मिश्रे च क्षीणमोहे च, विश्रान्तास्ते त्वयोगिनि ॥ १८ ॥'
-योगावतारद्वात्रिंशिका । २ 'आर्तरौद्रधर्मशुक्लानि ।' तत्त्वार्थ-अध्याय ६, सूत्र २६ ।
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