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आध्यात्मिक विकास की तुलना जैनशास्त्र में मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा के नाम से अज्ञानी जीव का लक्षण बतलाया है कि जो अनात्मा में अर्थात् आत्म-भिन्न जड़तत्त्व में आत्म-बुद्धि करता है, वह मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा ' है । योग-वासिष्ठ में २ तथा पातञ्जलयोग सूत्र 3 में अज्ञानी जीव का वही लक्षण है। जैनशास्त्र में मिथ्यात्वमोह का संसार-बुद्धि और दुःखरूप फल वर्णित है ४ । वही बात योगवासिष्ठ के
१ 'तत्र मिथ्यादर्शनोदयवशीकृतो मिथ्यादृष्टिः ।'
-तत्त्वार्थ राजवात्तिक ६, १, १२ । 'आत्मधिया समुपात्तकायादिः कीयतेऽत्र बहिरात्मा । कायादेः समधिष्ठायको भवत्यन्तरात्मा तु ॥७॥'
-योगशास्त्र, प्रकाश १२ । 'निर्मलस्फटिकस्येव सहज रूपमात्मनः । अध्यस्तोपाधिसंबद्धो जडस्तत्र विमुह्यति ॥६॥
-ज्ञानसार, मोहाष्टक । 'नित्यशुच्यात्मताख्यातिरनित्याशुच्यनात्मसु । अविद्या तत्त्वधीविद्या योगाचार्यैः प्रकीर्तिता ॥१॥'
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ज्ञानसार विद्याष्टक । 'भ्रमवाटी बहिष्टिभ्रंमच्छाया तदीक्षणम् ।। अभ्रान्तस्तत्त्वदृष्टिस्तु, नास्यां शेते सुखाऽऽशया ॥२॥
-ज्ञानसार, तत्त्वदृष्टि-अष्टक । २ 'यस्याऽज्ञानात्मनो शस्य, देह एवात्मभावना । उदितेति रुषवाक्षरिपवोऽभिभवन्ति तम् ॥३॥'
- निर्वाण प्रकरण; पूर्वार्ध सर्ग ६ । ३ 'अनित्याऽशुचिदुःखाऽनात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ।'
-पातञ्जलयोगसूत्र, साधन-पाद, सूत्र ५। ४ 'समुदायावयवयोर्बन्धहेतुत्वं वाक्यपरिसमाप्तेर्वैचित्र्यात् ।'
- तत्त्वार्थ-राजवार्तिक ६,१, ३१ । 'विकल्पचषकैरात्मा, पीतमोहासवो ह्ययम् । भवोच्चतालमुत्तालप्रपञ्चमधितिष्ठति ॥५॥
-ज्ञानसार, मोहाष्टक ।
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