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कर्मवाद
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और इनके द्वारा संसारी श्रात्मा की अनुभवसिद्ध भिन्न-भिन्न अवस्था का जैसा खुलासा किया गया है वैसा किसी भी जैनेतर दर्शन में नहीं है । पातञ्जलदर्शन में कर्म के जाति, श्रायु और भोग तीन तरह के विपाक बतलाए हैं, परन्तु जैन दर्शन में कर्म के संबन्ध में किये गये विचार के सामने वह वर्णन नाम मात्र का है।
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आत्मा के साथ कर्म का बन्ध कैसे होता है किन - किन कारण से होता है ? किस कारण से कर्म में कैसी शक्ति पैदा होती है ? कम, अधिक से अधिक और कम से कम कितने समय तक आत्मा के साथ लगा रह सकता है ? आत्मा के साथ लगा हुआ भी कर्म, कितने समय तक विपाक देने में असमर्थ है ? विपाक का नियत समय भी बदला जा सकता है या नहीं ? यदि बदला जा सकता है। तो उसके लिए कैसे आत्मपरिणाम श्रावश्यक हैं? एक कर्म, अन्य कर्मरूप कब बन सकता है ? उसकी बन्धकालीन तीव्रमन्द शक्तियाँ किस प्रकार बदली जा सकती हैं ? पीछे से विपाक देनेवाला कर्म पहले ही कब और किस तरह भोगा जा सकता है? कितना भी बलवान् कर्म क्यों न हो, पर उसका विपाक शुद्ध श्रात्मिक परिणामों से कैसे रोक दिया जाता है ? कभी-कभी आत्मा के शतशः प्रयत्न करने पर भी कर्म, अपना विपाक बिना भोगवाए नहीं छूटता ? श्रात्मा किस तरह कर्म का कर्त्ता और किस तरह भोक्ता है ? इतना होने पर भी वस्तुतः श्रात्मा में कर्म का कर्तृव्य और भोक्तृत्व किस प्रकार नहीं है ? संक्लेशरूप परिणाम अपनी आकर्षण शक्ति से आत्मा पर एक प्रकार की सूक्ष्म रज का पटल किस तरह डाल देते हैं ? आत्मा वीर्य-शक्ति के आविर्भाव के द्वारा इस सूक्ष्म रज के पटल को किस तरह उठा फेंक देता है ? स्वभावतः शुद्ध आत्मा भी कर्म के प्रभाव से किस-किस प्रकार मलीन सा दीखता है ? और बाह्य हजारों श्रावरणों के होने पर भी श्रात्मा अपने शुद्ध स्वरूप से च्युत किस तरह नहीं होता है ? वह अपनी उत्क्रान्ति के समय पूर्ववद्ध तीव्र कर्मों को भी किस तरह हटा देता है ? वह अपने वर्त्तमान परमात्मभाव को देखने के लिए जिस समय उत्सुक होता है उस समय उसके, और अन्तरायभूत कर्म के बीच कैसा द्वन्द्व (युद्ध) होता है ? अन्त में वीर्य - वान् श्रात्मा किस प्रकार के परिणामों से बलवान् कर्मों को कमजोर करके अपने प्रगति-मार्ग को निष्कण्टक करता है ? श्रात्म- मन्दिर में वर्तमान परमात्मदेव का साक्षात्कार कराने में सहायक परिणाम, जिन्हें 'अपूर्वकरण' तथा 'निवृत्तिकरण' कहते हैं, उनका क्या स्वरूप है ? जीव अपनी शुद्ध परिणाम- तरंगमाला के वैद्युतिक यन्त्र से कर्म के पहाड़ों को किस कदर चूर-चूर कर डालता है ? कभी-कभी गुलांट खाकर कर्म हो, जो कुछ देर के लिए दबे होते हैं, वे ही प्रगतिशील श्रात्म
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