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जैन धर्म और दर्शन
हैं । प्रथम विभाग की तीव्रता, न्यूनाधिक प्रमाण में तीन गुणस्थानों (भूमिका) तक रहती है । इससे पहले तीन गुणस्थानों में दर्शन-शक्ति के अविर्भाव का सम्भव नहीं होता । कषाय के उक्त प्रथम विभाग की अल्पता, मन्दता या प्रभाव होते ही दर्शन-शक्ति व्यक्त होती है । इसी समय श्रात्मा की दृष्टि खुल जाती है । दृष्टि के इस उन्मेष को विवेकख्याति, भेदज्ञान, प्रकृति-पुरुषान्यता-साक्षात्कार और ब्रह्मज्ञान भी कहते हैं ।
इस शुद्धि दृष्टि से आत्मा जड़-चेतन का भेद, असंदिग्ध रूप से जान लेता है । यह उसके विकास क्रम की चौथी भूमिका है इसी भूमिका में से वह अन्तर्दृष्टि बन जाता है और आत्म मन्दिर में वर्तमान तात्त्विक परमात्म स्वरूप को देखता है । पहले की तीन भूमिकाओं में दर्शन मोह और अनन्तानुबन्धी नाम के कषाय संस्कारों की प्रबलता के कारण श्रात्मा अपने परमात्म-भाव को देख नहीं सकता । उस समय वह बहिर्दृष्टि होता है | दर्शनमोह आदि संस्कारों के वेग के कारण उस समय उसकी दृष्टि इतनी स्थिर व चंचल बन जाती है कि जिससे वह अपने में ही वर्तमान परमात्म स्वरूप या ईश्वरत्व को देख नहीं सकता । ईश्वरत्व भीतर ही है, परन्तु है वह अत्यन्त सूक्ष्म; इसलिए स्थिर व निर्मल दृष्टि के द्वारा ही उसका दर्शन किया जा सकता है । चौथी भूमिका या चौथे गुणस्थान को परमात्म-भाव के या ईश्वरत्व के दर्शन का द्वार कहना चाहिए । और उतनी हद तक पहुँचे हुए आत्मा को अन्तरात्मा कहना चाहिए । इसके विपरीत पहली तीन भूमिकाओं में वर्तने के समय, आत्मा को बहिरात्मा कहना चाहिये । क्योंकि वह उस समय बाहरी वस्तुओं में ही श्रात्मत्व की भ्रान्ति से इधर-उधर दौड़ लगाया करता है । चौथी भूमिका में दर्शन मोह तथा अनन्तानुबन्धी संस्कारों का वेग तो नहीं रहता, पर चारित्र-शक्ति के प्रावरण -भूत संस्कारों का वेग अवश्य रहता है। उनमें से अप्रत्याख्यानावरण संस्कार का वेग चौथी भूमिका से आगे नहीं होता इससे पाँचवीं भूमिका में चारित्र - शक्ति का प्राथमिक विकास होता है; जिससे उस समय आत्मा, इन्द्रिय-जय यम-नियम आदि को थोड़े बहुत रूप में करता है - थोड़े बहुत नियम पालने के लिए सहिष्णु हो जाता है । प्रत्याख्यानावरण नामक संस्कार — जिनका वेग पाँचवीं भूमिका से आगे नहीं है— उनका प्रभाव पड़ते ही चारित्र-शक्ति का विकास और भी बढ़ता है, जिससे श्रात्मा बाहरी भोगों से हटकर पूरा संन्यासी बन जाता है । यह हुई विकास की छठी भूमिका । इस भूमिका में भी चारित्र-शक्ति के त्रिपक्षी 'संज्वलन' नाम के संस्कार कभी-कभी ऊधम मचाते हैं, जिससे चारित्र -शक्ति का विकास दबता नहीं, पर उसकी शुद्धि या स्थिरता में अन्तराय इस प्रकाराते हैं, जिस प्रकार वायु के वेग के कारण, दीप की ज्योति
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